Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 13
________________ आलोचना की है । तत्वजिज्ञासुओंसे हमारा अनुरोध है कि इस विचार - सरणि पर नये सिरेसे विचार करके तत्त्वकी समीक्षा करें । अपनी विद्वत्ता और अध्ययनशीलताके कारण श्री सम्पूर्णानन्द जी पर मेरी गहरी आस्था है । मेरी इच्छा थी कि वह इस पुस्तकका प्राक्कथन लिखें । मैंने भाई प्रो० खुशालचन्द्र से अपनी यह इच्छा व्यक्त की और संयुक्तप्रान्तके मंत्रित्वका भार वहन करते हुए भी उन्होंने हम लोगोंके अनुरोधकी रक्षा की । एतदर्थं हम श्री सम्पूर्णानन्दजीके अत्यन्त अभारी हैं । जिन ग्रन्थों और पत्र-पत्रिकाओंके लेखोंसे हमें इस पुस्तकके लिखने में विशेष साहाय्य मिला है उन सभी लेखकोंके भी हम आभारी हैं । उनमें भी प्रोफेसर ग्लैजनपके जैनधर्मसे हमें बड़ी सहायता मिली है, उसका पर्यवेक्षण करके ही इस पुस्तककी विषय-सूची तैयार की गई है। श्री नाथूरामजी प्रेमी के 'जैन साहित्य और इतिहास' का उपयोग 'सम्प्रदायपन्थ' लिखनेमें विशेष किया गया है। जैन हितैषीके किसी पुराने अंकमें जगत्कर्तृ त्वके सम्बन्ध में स्व० बा० सूरजभानु वकीलका एक लेख प्रकाशित हुआ था । वह मुझे बहुत पसन्द आया था । प्रस्तुत पुस्तक में 'यह विश्व और उसकी व्यवस्था' उसीके आधारपर लिखा गया है । अतः उक्त सभी सुलेखकोंके हम आभारी हैं । अन्तमें पाठकोंसे अनुरोध है कि प्रस्तुत पुस्तकके सम्बन्धमें यदि वे कोई सूचना देना चाहें तो अवश्य देनेका कष्ट करें। दूसरे संस्करण में उनका यथासंभव उपयोग किया जा सकेगा । } श्रुतपञ्चमी वी० नि० सं० २४७४ कैलाशचन्द्र शास्त्री

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