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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप है-उत्तम धर्मश्रुति के मिलने पर भी तत्त्व की श्रद्धा फिर भी दुर्लभ है क्योंकि मिथ्यात्व सेवी पुरुष बहुत देखे जाते हैं। अतः गौतम समय मात्र भी प्रमाद मत कर । धर्म में श्रद्धान होने पर भी उसका काया के द्वारा सेवन करना बहुत कठिन है। क्योंकि इस संसार में कामगुणों से मूछित जीव अधिक देखे जाते हैं ।' ..
उपर्युक्त गाथाओं से विदित होता है कि 'श्रद्धा' परम दुर्लभ है । धर्म में श्रद्धा-सम्यग्दर्शन, तत्त्वों पर श्रद्धा-सम्यग्ज्ञान तथा काया . द्वारा इस श्रद्धा का सेवन-सम्यक् चारित्र यह अभिप्राय इस से निकाल सकते हैं। किंतु श्रद्धा-सम्यक्त्व तो आध्यात्मिक विकास के लिए आधारशिला है।
सम्यक्त्व के स्वरूप को दर्शा कर अब सूत्रकार बता रहे हैं कि सम्यग्दृष्टि पुरुष के कर्म और कर्तव्य कैसे हो ? सम्यग्दृष्टि पुरुष विषय को अपनी बुद्धि से विचार करके देखे और अपने. पूर्वपरिचय की अभिलाषा न रखता हुआ ममत्त्व और स्नेहभाव को तोड़ देवे ।
इस प्रकार सांसारिक विषयभोगों को हेय तथा मोक्षमार्ग को उपादेय समझ कर मुनि शंका-कांक्षाओं का त्याग करे-ऐसा इस सूत्र में स्थान-स्थान पर कहा गया है।
१. [क] लघृण वि उत्तमं सुइं, सद्दहणा पुणरवि दुल्लहा ।
मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं गोयम मा पमायए ॥ [ख] धम्म पि हु सहहंतया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम मा पमायए ।
वही अध्ययन १०, गाथा १९-२० ॥ २. एरामटुं सपेहाए, पासे समियदंसणे । छिन्दे गेहिं सिहं च, न कंखे पुष संथव ॥
. वही अध्ययन ६, गाथा ४ ॥ ३. उत्तरा० अध्ययन ६ गाथा १४, अध्ययन २ गाथा ४४-४५, .
अध्ययन ९गाथा २६, अध्ययन १९ गाथा ४२, अध्ययन ५ गाथा २३॥