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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप वि. की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना है।' चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहू से ये भिन्न हैं। आवश्यक नियुक्ति आ. भद्रबाहू की प्रथम कृति है । यह विषय-वैविध्य की दृष्टि से अन्य नियुक्तियों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस पर जिनभद्र, जिनदास गणि, हरिभद्र, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र, माणिक्यशेखर प्रभृति आचार्यों ने विविध व्याख्याएँ लिखी हैं।
आवश्यक नियुक्ति में सम्यक्त्व की नियुक्ति करते हुए कहा
सम्यग्दृष्टि, अमोह, शुद्धि, सद्भाव, दर्शन, बोधि, अविपयर्थ, सुदृष्टि आदि सम्यक्त्व की नियुक्ति है। अब इस का विश्लेषण करते हुए कहा है कि-जो सम्यग अर्थों का. दर्शन करे वह सम्यग्दृष्टि है। . विचारों में अमूढ़ता वह अमोह है । मिथ्यात्व रूपी मल का दूर होना शुद्धि है । सद्भाव होना । यथास्थित अर्थ का होना दर्शन है । परमार्थ का ज्ञान होना बोधि है। अवितथग्रह विपर्यय है। सुन्दर दृष्टि वह सुदृष्टि है । इस प्रकार सात प्रकार से सम्यक्त्व की नियुक्ति की गई है।
अब आगे ग्रन्थकार कथन कर रहे हैं कि जीव किस प्रकार ग्रन्थि-भेदन कर के सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है
आयुष्य कर्म के सिवाय अन्य सात कर्मों की स्थिति में से जब संख्यात कोडाकोडी भाग आत्मा द्वारा खपा नष्ट कर दिया जाता है । एवं आत्मा चार सामायिक में से एक सामायिक को प्राप्त करके. अत्यंत दुर्भेद्य बांस की ग्रन्थि का भेदन होने पर जीव सम्यक्त्व लाभ प्राप्त १. न्यायावतार वार्तिक वृत्ति प्रस्ता०, पृ० १०३ ॥ २. सम्मदिट्ठी अमोहो सोही सम्भाव दसण बोही ।
अविवजओ सुदि ट्रित्ति एवमाई निरुत्ताई ॥ ८६२ ।।। सम्यगर्थानां दर्शनं सम्यग्दृष्टिः१, विचारेऽमूढत्वं अमोह२, मिथ्यात्व. मलापगमः शोधिः३. सद्भावो यथास्थाऽर्थस्तद्दर्शनं ४, परमार्थ ज्ञानं बोधि:५, अवितथग्रहोऽविपर्ययः६, शोभनादृष्टिः सुदृष्टिः७, सम्यक्त्वस्य निरुक्तिः । आवश्यक नियुक्ति, भाग १, गा० ८६२, पृ० १६६ ॥