________________
१२४ .
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अनिवृत्ति-बादर-सांपरायिक-प्रविष्ट-शुद्धि संयतों में उपशमक भी होते हैं और क्षपक भी होते हैं ।' . समान-समयवर्ती जीवों के परिणामों की भेदरहित वृत्ति को निवृत्ति कहते हैं । अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति ही है । अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती है उसे. अनिवृत्ति कहते हैं ।
सूत्र को स्पष्ट करते हुए पुनः टीकाकार कहते हैं कि-सांपराय का अर्थ है कषाय, और बादर यानि स्थूल इस प्रकार स्थूल कषायों को बादर सांपराय कहते हैं । जो अनिवृत्ति रूप है उनको अनिवृत्तिबादरसांपराय कहते हैं । इन परिणामों में जिन संयतों की विशुद्धि प्रविष्ट हो गई है उनको अनिवृत्तिबादरसांपरायप्रविष्टशुद्धिसंयत कहते हैं। ये उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं । .. यहाँ प्रश्नकर्ता प्रश्न करते हैं कि जितने परिणाम होते हैं उतने ही गुणस्थान क्यों नहीं होते ? समाधान करते हुए कहा कि-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि जितने परिणाम होते हैं यदि उतने ही गुणस्थान माने जाए तो व्यवहार ही नहीं चल सकता है, इसलिए द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नियत संख्यावाले ही गुणस्थान कहे गये हैं।' - इस गुणस्थान में जीव मोह की कितनी ही प्रकृतियों का उपशमन करता है और कितनीक का आगे करेगा इस अपेक्षा से यह गुणस्थान
औपशमिक है और कितनी ही प्रकृतियों का क्षय किया है और आगे १. अणियट्टि-बादर-सांपराइय-पविठ्ठ-सुद्धि-संजदेसु अस्थि उपसमा
खवा । वही सू० । १७ ।, पृ० १८३ ॥ २. समानसमयावस्थितजीयपरिणामानां निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्तिः । अथवा निवृत्तिावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः ।
-वही, पृ० १८३-१८४ ॥ ३. वही, पृ० १८४ ॥ ४. वही, पृ० १८४-१८५ ॥