Book Title: Jain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 255
________________ अध्याय ३. २३३ श्रद्धावान् और श्रद्धावती के लिए ईश्वर ने क्षमा और महान् पुण्यफल तैयार कर रखा है।' ___श्रद्धावान् कौन है ? तो उसके लिए कथन किया है कि " जब ईश्वर का वर्णन किया जाय तब उसका हृदय कंपित होने लगे और जब उसके सन्मुख उसके वचनों का वाचन किया जाय तो ये वचन उसकी श्रद्धा में वृद्धि करे । धर्म का सार क्या है ? तो कहा गया है कि “धार्मिकता इसमें नहीं है कि तुम्हारा मुख पूर्व की ओर रखो या पश्चिम की ओर । धार्मिकता तो यह है कि मनुष्य ईश्वर पर और अंतिम दिन पर, देवदूतों पर और ईश्वरीय ग्रन्थों पर और प्रेषितों पर श्रद्धा रखे । इस प्रकार हम देखते हैं कि यहाँ ईश्वर, गुरु और धर्म ग्रन्थों पर श्रद्धा रखने का सूचन किया है, जो श्रद्धा रखता है वह धार्मिक है। जैन संमत सम्यक्त्व का एक अर्थ देव-गुरु-धर्म पर श्रद्धा रखना भी है। उससे यहाँ तुलना की जा सकती है । यह वचन उससे साम्य रखता है। . . जो श्रद्धायुक्त है उसके लिए तो पाप का नाम भी बुरा है । और जिसे ऐसा करने का पश्चाताप नहीं होता वही अत्याचारी है।' .यह कथन जैन आगम आचारांग के सदृश है। ... श्रद्धावानों को उल्लेख करते इसमें कहा गया है कि हे श्रद्धा वानों ! अति संशय से बचते रहो। निःसंदेह, कितनेक संशय पाप है। जनदर्शन के समान यहाँ भी शंका न करने का आदेश दिया गया है। अतः शंका न करके " श्रद्धावानों को ईश्वर पर ही भरोसा करना चाहिये । यदि परमात्मा पर, उसकी वाणी पर श्रद्धा रखोगे १. वही, ३३-३५ ॥ २. वही, ८-२॥ ३. वही, २-१७७, पृ० १०५ एवं २-२८५, पृ. १०७ ॥ ४. वही, ४९-११, पृ० १२२ ॥ ५. वही, ४९-१२ ॥ ६. वही, १४-११, पृ० १७५ ।।

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