Book Title: Jain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 245
________________ अध्याय ३. की ग्रंथि टूट जाती है, सारे संदेह मिट जाते हैं तथा कर्मबंधन क्षीण हो जाता है ।' इस प्रकार भगवान् की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियाँ मिट जाती है, हृदय आनंद से भर जाता है, तब भगवान् के तत्त्व का अनुभव अपने आप हो जाता है । इसी से बुद्धिमान् लोग नित्य-निरंतर बड़े आनन्द से भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति प्रेमभक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसाद की प्राप्ति होती है । जैनदर्शन में जिस प्रकार सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए यथाप्रवृत्तकरण आदि तीन करणों से मोहनीय कर्म की दुर्भेद्य ग्रंथिभेदन का कथन है उसी प्रकार यहाँ पर भी कर्मों की गांठ-छेदन का कथन किया गया है । संशयमुक्ति सम्यक्त्व के होने पर हो जाती है, यहाँ भी संशयमुक्ति का कथन किया गया है । साथ ही हमें यहाँ यह भी लक्षित होता है कि सम्यक्त्व के रूप में भगवद्भक्ति ग्राह्य है । हालांकि जैन संमत सम्यक्त्व में एवं भक्ति के स्वरूप में भिन्नता है फिर भी कुछ अंशों में इसे समकक्ष रखा जा सकता है। क्योंकि वहाँ सम्यक्त्व को मोक्ष की आधारशिला माना है उसी भांति यहाँ भगवद्भक्ति को ‘मान्य किया है । : भक्ति के विषय में कथन किया है कि "अनर्थो की शांति का . साक्षात् साधन है-केवल भगवान् का भक्तियोग । परंतु संसार के लोग इस बात को नहीं जानते । यही समझकर उन्होंने इस परमहंसों की संहिता श्रीमद्भागवत की रचना की। इसके श्रवणमात्र से पुरुषोत्तम १. भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ __ -वही, १-२-२१ एवं ३-२६-२ ॥ २. एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः । . भगवतत्त्वविज्ञानं मुक्तसंगस्य जायते ॥ वही, १-२-२० ॥ ३. अतो वै कवयो नित्यं भक्तिं परमया मुदा । वासुदेवे भगवति कुर्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ।। वही, १-२-२२ ।।

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