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अध्याय ३
५. असंसक्ति इस भूमिका के अभ्यास की दृढता होने पर चित्त निरंतर स्वरूप में लीन बनकर अहं - ममभाव नष्ट हो जाय और देहादि में आसक्ति का अभाव स्थिर हो जाय और बाह्य सृष्टि अस्पष्ट भासमान होने लगे, ऐसी स्थिति को असंसक्ति कहते हैं ।
६. पदार्थाभाविनी - पूर्वोक्त पांच भूमिका के अभ्यास की दृढता होने पर योगी की निर्विकल्प स्थिति होती है तथा जगत् के अन्य पदार्थों की हस्ती जाने विस्मृत हो जाती है । यह सब आत्मस्वरूप में अदृश्य हो जाते हैं अतः इस भूमिका को पदार्थाभाविनी कहते हैं ।
७. तुर्यगा – इसे कैवल्य भी कहते हैं । इसमें केवल आत्मरूप एकनिष्ठा प्राप्त होती है । यह व्युत्थानरहित विदेह की स्थिति है । यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करें तो जैन दर्शनानुसार चतुर्दश गुणस्थानों में पहली चार भूमिकाओं का समावेश चतुर्थ गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि में हो जाता है । पाँचवे व छट्ठे गुणस्थान को पाँचवी भूमिका, बारहवें गुणस्थान को छट्ठी भूमिका में तथा तेरहवें गुणस्थान का सातवीं भूमिका में अन्तर्भाव हो जाता है ।
वेदांतसूत्र पर अनेक भाष्य लिखे गये हैं । जिनमें शंकराचार्य का शारीरक अथवा शांकर भाष्य, रामानुज का श्री भाष्य, वल्लभ और मध्वाचार्य आदि प्रसिद्ध हैं । इन में भी भाष्यकारों के विचारों में मतभेद है । किन्तु सभी ( ज्ञान से तो ) ' ज्ञानान्मोक्षः ' स्वीकार करते हैं । अब हम इनके विचारों का अवलोकन करेंगे। शंकराचार्य कहते हैं - " ब्रह्म . संत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्ममैव नापर: " अर्थात् "ब्रह्म ही सत्य है और नानात्व से भरा यह जगत् मिथ्या है, और अंतिम विश्लेषण में जीव से भिन्न नहीं है ।" इस प्रकार अपने ग्रन्थ ब्रह्मज्ञानावलीमाला में अद्वैत वेदांत का सार इस अर्द्ध श्लोक में ही कर देते हैं । तैतिरीय उपनिषद् में भी ब्रह्म के लिए कहा है कि “सत्यं ज्ञानमनन्तं " सत्य ज्ञान ही अनंत है ।
ब्रह्म
शंकराचार्य कहते हैं कि बंधन का कारण जीव का स्वयं के स्वरूप के विषय में अज्ञान है । जीव स्वयं ब्रह्म है, परंतु अनादि अविद्या के
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