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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप और मोह में नहीं पड़ता है । आत्मभाव से उसमें नहीं बंधता है । जो उत्पन्न होता है, दुःख ही उत्पन्न होता है जो रुक जाता है वह दुःख ही रुक जाता है। न मन में कोई कांक्षा रखता है और न कोई संशय । उसे अपने भीतर ही ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, इसी को सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।' यहां भिक्षुको ही आर्य श्रावक कह कर संबोधित किया गया है एवं सम्यग्दृष्टि में भेद ज्ञान के साथ गहन श्रद्धा का होना बताया है और शंका एवं कांक्षा का लवलेश भी न होने का निर्देश किया है। साथ ही इसी सुत्त में अन्यत्र यह भी उल्लेख किया है कि "बुद्ध धर्म और संघ में श्रद्धा रखने से दुःखों का अंत होता है । "२ __जिस प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा अथवा निष्ठा माना गया है उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में श्रद्धा का अर्थ बुद्ध संघ और धर्म के प्रति निष्ठा है । जैन दर्शन में देव के रूप में अरिहंत को साधना का आदर्श माना गया है, वहाँ बौद्ध दर्शन में साधना के आदर्श के रूप में बुद्ध व बुद्धत्व मान्य है । साधना मार्ग में दोनों ही परम्परा धर्म के प्रति निष्ठा तो आवश्यक मानते हैं एवं जैन दर्शन साधना के पथ-प्रदर्शक के रूप में गुरु को स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन संघ को स्वीकार करता है।
" विशुद्धिमार्ग" में सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताया है कि नाना प्रकार के प्रत्यय के परिग्रह से तीनों कालों में कांक्षा ( संदेह, शंका ) को मिटाकर प्राप्त हुआ ज्ञान कांक्षा वितरण विशुद्धि है । धर्मस्थिति ज्ञान, यथाभूत ज्ञान और सम्यग्दर्शन इसी का नाम है । जो यथार्थ जानता देखता है उसे सम्यग्दर्शन कहा जाता है ।"3
१. कच्चानगोत्त सुत्त, सं० नि० हि०, १२-२-५, पृ० २००-२० ।। २. सं० नि० ९-११, पृ० १६२ ॥ ३ विशुद्धिमार्ग, भाग-२, हिन्दी परि० १९, पृ० २०७ ।।