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अध्याय-२
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इस पर टीकाकार होने वाली शंका का निर्देश करते हैं कियदि छटे गुणस्थानवी जीव प्रमत्त है तो संयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि प्रमत्त जीवों को अपने स्वरूप का संवेदन नहीं हो सकता है। यदि वे संयत हैं तो प्रमत्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि संयमभाव प्रमाद के परिहारस्वरूप होता है। समाधान करते हुए कहा कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि हिंसा, असत्य, अचौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों से विरति भाव को संयम कहते हैं जो कि तीन गुप्ति और पांच समितियों से अनुरक्षित है। वह संयम वास्तव में प्रमाद से नष्ट नहीं किया जा सकता है ।' ..
पुनः शंकाकार शंका करते हैं कि-यहाँ पर सम्यग्दर्शन पद की जो अनुवृत्ति बतलाई है उस से क्या यह तात्पर्य निकलता है कि सम्यग्दर्शन के बिना भी संयम की उपलब्धि होती है ? - इसका समाधान किया कि ऐसा नहीं है, क्योंकि आप्त, आगम
और पदार्थों में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई, तथा जिस का चित्त तीन मूढ़ताओं से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। पुनः इस गुणस्थान के प्रति शंका की है कि यहाँ पर द्रव्यसंयम का ग्रहण नहीं किया है, यह कैसे जाना जाय १ .. समाधान-क्योंकि भलीप्रकार जानकर और श्रद्धान कर जो यम
सहित है उसे संयत कहते हैं । संयत शब्द की व्युत्पत्ति करने से यह .. जाना जाता है कि यहाँ पर द्रव्य संयम का ग्रहण नहीं किया है।' . अब सूत्रकार क्षायोपशमिक संयमों शुद्ध संयम से उपलक्षित गुणस्थान का निरूपण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-सामान्य से अप्रमत्त संयत जीव होते हैं। १. वही, पृ० १७६ ॥ २. वही, पृ० १७७ ॥ ३. वही ॥ १. अप्पमत्तसंजदा । १५ । पृ० १७८ ।।