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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप जिन जीवों के विपरित, एकांत, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते हैं । अथवा मिथ्या शब्द का अर्थ वितथ और दृष्टि शब्द का अर्थ रुचि, श्रद्धा या प्रत्यय है। इसलिए जिन जीवों की रुचि असत्य में होती है उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते है।'
मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का व.थन करके आगे दूसरे गुणस्थान के लिए कहते हैं—सामान्य से सासादन सम्यग्दृष्टि जीव हैं। ...
सम्यक्त्व की विराधना को आसादन कहते हैं । जो इस आसादन से युक्त है उसे सासादन कहते हैं। अनन्तानुबन्धी किसी एक कषाय के उदय से जिस का सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है, किंतु जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मिंधात्वरूप परिणामों को नहीं प्राप्त हुआ है फिर भी मिथ्यात्व गुणस्थान के अभिमुख है उसे सासादन कहते हैं। इस गुणस्थान के विषय में शंकाकार शंका करते हैं कि
- सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है, समीचीन रुचि का अभाव होने से सभ्यग्दृष्टि भी नहीं है तथा इन दोनों को विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिध्यादृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं, क्योंकि समीचीन, असभीचीन और उभयरूप दृष्टि के आलम्बनभूत वस्तु के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पाई जाती नहीं है। अतः सासादन गुणस्थान असत्यरूप है।' १. अथवा मिथ्या वितथं, तत्र दृष्टिः रुचिः श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते मिथ्या
दृष्टयः ॥ २. सासणसम्मााट्टी ॥ १० ॥ वही, पृ० १६३ ।। ३. आसादनं सम्यक्त्वविराधनम्, सह आसादनेन वर्तत इति सासादनो विनाशितसम्यग्दर्शनोऽप्राप्तिमिथ्यात्व कर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यास्वाभिमुखः सासादन इति भण्यते -टीका, वही ॥ . ४. अथ स्यान्न मिथ्यादृष्टिरयं मिथ्यात्वकर्मण उदयाभावात्, न सम्यग्. दृष्टिः सम्यगरुचेरभावात् , न सम्यग्मिथ्यादृष्टिरुभयविषयरुचेरभावात् ।