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सामान्यावलोकन भगवतीसूत्रके अनेक प्रश्नोत्तरोंमें नय, प्रमाण, सप्तभंगी, अनेकान्तवाद आदिके दार्शनिक विचार हैं।
सूत्रकृतांगमें भूतवाद और ब्रह्मवादका निराकरण करके पृथक् आत्मा तथा उसका नानात्व सिद्ध किया है। जीव और शरीरका पृथक् अस्तित्व बताकर कर्म और कर्मफलकी सत्ता सिद्ध की है । जगत्को अकृत्रिम और अनादि-अनन्त प्रतिष्ठित किया है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवादका निराकरण कर विशिष्ट क्रियावादको स्थापना की गई है । प्रज्ञापनामें जीवके विविध भावोंका निरूपण है।
राजप्रश्नीयमें श्रमणकेशीके द्वारा राजा प्रदेशीके नास्तिकवादका निराकरण अनेक युक्तियों और दृष्टान्तोंसे किया गया है ।
नन्दीसूत्र जैनदृष्टिसे ज्ञानचर्चा करनेवाली अच्छी रचना है । स्थानांग और समवायांगको रचना बौद्धोंके अंगुत्तर निकायके ढंगकी है। इन दोनोंमें आत्मा, पुद्गल, ज्ञान, नय और प्रमाण आदि विषयोंकी चर्चा आई है। "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुर्वइ वा" यह मातृका-त्रिपदी स्थानांगमें उल्लखित है, जो उत्पादादित्रयात्मकता के सिद्धान्तका निरपवाद प्रतिपादन करती है । अनुयोगद्वारमें प्रमाण और नय तथा तत्त्वोंका शब्दार्थप्रक्रियापूर्वक अच्छा वर्णन है। तात्पर्य यह कि जैनदर्शनके मुख्य स्तम्भोंके न केवल बीज हो किन्तु विवेचन भी इन आगमोंमें मिलते हैं।
पहले मैंने जिन चार मुद्दोंकी चर्चा की है उन्हें संक्षेपमें ज्ञापकतत्त्व या उपायतत्त्व और उपेयतत्त्व इन दो भागोंमें बांटा जा सकता है। सामान्यावलोकनके इस प्रकरणमें इन दोनोंकी दृष्टि से भी जैनदर्शनका लेखाजोखा कर लेना उचित है।
शापकतत्व:
सिद्धान्त-आगमकालमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पांच ज्ञान मुख्यतया ज्ञेयके जाननेके साधन माने गये हैं । इनके साथ