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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
लक्ष नहीं है उसका प्रतिभास होने पर भी वह वास्तव में जानने में नही आता है । जानने में आने पर भी जानता नहीं है क्योंकि लक्ष वहाँ नहीं है इस प्रकार सम्यक्ज्ञान का लक्षण हर हालत में परद्रव्य से पराङ्मुख और स्वद्रव्यस्वरूप ज्ञायक आत्मा के सन्मुख ही रहने का है 1
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इस प्रकार आप श्री ने सम्यक्ज्ञान का यथार्थ स्वरूप दर्शाकर भव्य जीवों पर अनन्त - अनन्त उपकार किया है।
श्री कुंदकुंददेव के तुम्हीं सुभक्त, श्री अमृतदेव के तुम्हीं सुमित्र, श्री कहान गुरुदेव के तुम्हीं सुपुत्र, शुद्धातम जाननहार लाख-लाख तुम्हें प्रणाम ।।
हमारा
पू. गुरुदेव श्री के शासनकाल में आप श्री द्वारा ज्ञान के स्वरूप की अत्यन्तस्पष्टता, दृढ़ता और निशंकता की पराकाष्टा देखकर मस्तक झुक जाता है। आपकी महिमा अपरम्पार है। आपका द्रव्य अलौकिक है, त्रिकाल मंगल है, परमहितकारी है। आपकी अध्यात्मरसमयी मुद्रा, वाणी तथा जीवन भव्यों को आत्मदर्शन की प्रबल प्रेरणा प्रदान करता रहता है। T
आप श्री का अतिशय आभार मानते हुये हृदय में सहज उद्गार आते हैं कि हे प्रभु! आप श्री ने तो....
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मैं ज्ञायक परज्ञेय हैं मेरे ऐसी भ्रांति मिटा डाली। ज्ञायक का ज्ञायक रहने की, अपूर्व विधि बता डाली ।।
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द्रव्यदृष्टि का दान दिया, हम सुखी रहें वरदान दिया। हो सच्चे अनुपम दानवीर, हम भाव आपका सफल किया।।
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