Book Title: Haimanamamalasiloncha
Author(s): Jindevsuri, Vinaysagar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 13
________________ टीकाकार श्रीवल्लभोपाध्याय श्रीवल्लभरचित मौलिक एवं टीकाग्रन्थों का अवलोकन करने से इनके विषय में जो कुछ जानकारी मिलती है, वह इस प्रकार है :--- जन्मस्थान-अभिधानचिन्तामणिनाममाला की 'सारोद्धार' नामक टीका, हैमलिङ्गानुशासन विवरण की 'दुर्गपदप्रबोध' नामक टोका एवं निघण्टुशेष टोका ओदि स्वप्रणीत टीका ग्रन्थों में श्रीवल्लभ ने स्थान स्थान पर पद पद पर 'इति भाषा' 'इति लोके' 'इति प्रसिद्धे' शब्द से शब्दों के पर्याय देते हुये, राजस्थान में रूढ प्रचलित शब्दों का व्यापक रूप से उल्लेख किया है। इन टीकाग्रन्थों में लगभग ४५०० भाषा शब्दों का उल्लेख है । इन शब्दों का मैने स्वतन्त्र रूप से संग्रह कर लिया है जो शीघ्र ही 'राजस्थानी-संस्कृत शब्दकोश' के नाम से प्रकाशित होने वाला है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द देखिये : तावडा, कलाइणि, तेडण, ऊकरडओ, ओलम्भओ, ओलखाण-पिछाण, कवा, खेजड़ी, सांगरी, चलू, लूगड़ा आदि । अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि श्रीवल्लभ का जन्म एवं बाल्यकाल राजस्थान प्रान्त में व्यतीत हुआ हैं । साथ ही रूढ शब्दों के प्रयोग से यह भी अधिक संभव है कि राजस्थान में भी जोधपुर राज्य इनका जन्मस्थान रहा हो। यहां यह प्रश्न अवश्य ही विचारणीय हो सकता है कि श्रीवल्लभ जैन मुनि थे । मुनि होने के कारण विचरण करते रहते थे । फिर भी इनके जीवन का अधिकांश भाग राजस्थान प्रदेश में ही व्यतीत हुआ है । अतः निरन्तर जन-सम्पर्क के कारण इनकी भाषा में राजस्थानी शब्दों का प्रयोग अधिक हआ हो । किन्तु ध्यान देने की बात यह है कि कतिपय राजस्थानी शब्दों के प्रयोगकी बात न होकर ४५०० शब्दों का केवल राजस्थानी प्रयोग, उसमें भी आंचलिक शब्दावली का व्यवहार इन्होंने किया है, जो बाल्यपन के संस्कार के विना भाषा में नहीं आ सकते । अतः मेरे विचारानुसार जब तक कोई दूसरा पुष्ट प्रमाण प्राप्त न हो, तब तक भाषा के आधार पर इन्हें राजस्थानी मानने में किसी को संदेह नहीं होना चाहिये। जन्म-संवत-दीक्षा समय के प्रसंग में मैंने, अनुमानतः सं. १६३०-४० के मध्य में इनका दीक्षाकाल माना है । अतः दीक्षा के पूर्व इनकी अवस्था १०-१२ वर्ष की भी मानी जाय तो इनका जन्म समय स. १६२०-१६२५ के मध्य में माना जा सकता है । दीक्षा-सम्वत्-खरतरगच्छालङ्कार आचार्यप्रवर श्रीजिनमाणिक्यसूरि के पट्टधर, सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त युगप्रधान बिरुदधारक आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने अपने ५८ वर्ष के विशद गणनायक आचार्य काल में ४४ नन्दिओं (नामान्तपदों) की स्थापना की थी। इसमें २६ वीं संख्या की नन्दी 'वल्लभ' नाम की है । इन ४४ नन्दिओं में से १६ वों नन्दी 'सिंह' की स्थापना सं. १६२३ में हो चुकी थी । अतः अनुमानतः 'वल्लभ' नन्दी की स्थापना सं. १६३० एवं १६४० के मध्यकाल में हुई होगी । इस अनुमान का मुख्य कारण एक यह भी है श्रीवल्लभ ने सं. १६५४ में हैमनाममालाशिलोञ्छ और शेषसंग्रहनाममाला पर टीकाओं की रचना की । इसी वर्ष इनके गुरु ज्ञानविमलजी ने भी शब्दप्रभेद टीका पूर्ण की जिसमें श्रीवल्लभ सहायक थे । किसी भी ग्रन्थ पर लेखनी चलाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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