Book Title: Haimanamamalasiloncha
Author(s): Jindevsuri, Vinaysagar
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ लिये दी । इस सराय का नाम 'सुलतान सराय' रखा गया। वहां सम्राट ने पोषधशाला और जैन मन्दिर बनवाया एवं ४०० श्रावकों को सकुटुम्ब निवास करने का आदेश दिया। पूर्वोक्त कन्यानयनीय महावीर स्वामो की प्रतमा को इस सराय में सम्राट् के बनवाये हुये मंदिर में विराजमान किया गया । श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं अन्यधर्मावलम्बी जन भी भक्तिभाव से इस प्रतिमा की पूजा करने लगे।" श्री विद्यातिलक ने कन्यानयनमहावीरकल्पपरिशेष में लिखा है कि-"किसी समय मुहम्मद तुगलक को जिनप्रभसूरि से मिलने की पुनः उत्कंठा जागृत हुई और उसने आदेश निकलवा कर दौलताबाद से आचार्य को पुनः आने के लिए निवेदन किया, जिसे जिनप्रभसूरि ने सहर्ष स्वीकार किया और देवगिरि से दिल्ली के लिये प्रस्थान किया । मार्ग में आते हुये अल्लावपर में सरिजी के साथिों को मल्लिकों ने परेशान किया । उस समय यह वृत्तान्त जानकर जिनदेवसूरि ने सम्राट से मिलकर इस उपद्रव का निवारण करवाया था।" इससे स्पष्ट है कि सम्राट् के हृदय में जिनदेवसूरि के प्रति गौरवपूर्ण स्थान था। जिनदेवसूरि ने स्वरचित 'कालकाचार्य कथा' में स्वयं के लिये "स्वापर्यङ्कलालितः" विशेषण का प्रयोग किया है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि ये बाल्यावस्था से ही जिनप्रभसूरि के संरक्षण में रहे या लघु अवस्था में ही उन्होंने दोक्षा ग्रहण कर ली थी। सं. १३८५ में इनके नाम के साथ आचार्यपद का उल्लेख प्राप्त है ही । शिलोञ्छ का रचनाकाल जिनदेवसूरि ने १४३३ दिया है। वर्तमान समय में जिनदेवसूरि रचित केवल दो ही कृतियां प्राप्त हैं- १. कालिकाचार्यकथा और २. हैमनाममालाशिलोञ्छ । कालिकाचार्य कथा-इस कथा में जैन समाज में प्रसिद्ध आचार्य कालक का आख्यान दिया गया है । ९७ अनुष्टुप् श्लोकों में यह कथा है । शब्दों का चयन सरल और सुबोध है । इसकी भाषा संस्कृत है । आचार्य ने रचनासमय नहीं दिया है । - यह कथा देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत से प्रकाशित सचित्र कल्पसूत्र में प्रकाशित हो चुकी है। हैमनाममालाशिलोञ्छ-प्रस्तुत ग्रन्थ में साहित्य में प्रयुक्त नूतन शब्दों का संकलन 'अभिधानचिन्तामणिनाममाला' के पूरक रूप में हैं। नाममाला के काण्डों के अनुसार यह भी छः काण्डों में विभक्त है । प्रत्येक काण्ड में निम्नांकित श्लोक है:- (१) ६. (२) १४. (क)२. (४) ३९१. (५) १. (६) १५३. और प्रशस्ति का १। इस प्रकार समग्र श्लोक संख्या १३९ है। 'श्रीवल्लभ ने रचनाकाल से सम्बद्ध मूलपाठ 'वैक्रमेब्दे त्रिविश्वेन्द्रमिते' दिया है। इसके अनुसार त्रि ३, विश्व ३, और इन्द्र १४ होते हैं । अंको की वामगति मानकर टीकाकार ने रचना समय वि. सं. १४३३ माना है, जो युक्तियुक्त एवं उचित है । संवत् के सम्बन्ध में कछ और भी पाठान्तर प्राप्त होते हैं: पु० और आ० संज्ञक प्रति में 'त्रिवस्विषमिते 'त्रिवस्विषतिमे' पाठ प्राप्त है, इसके अनुसार वि. सं. ५८३ होता है। अ. संज्ञक प्रति और मटित संस्करण के अनुसार 'त्रिवस्विन्दुमिते' से १८३ होता है। जो कि लिपिकार की अज्ञता एवं अशुद्ध पाठ के कारण भ्रामक है । १. वही पृ. ९५, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 170