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प्रस्तावना
_ नामकरण कलिकालसर्वज्ञ आचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्रसूरि ने अपने अभिधान-चिन्तामणिनाम. माला नामक नामकोष के पूरक रूपसे शेष रहे एवं नवीन प्राप्त शब्दों का संकलन कर शेषसंग्रहनाममाला नाम से स्वतन्त्र कोष की रचना की थी। फिर भी कुछ शब्द उनमें संगृहीत नहीं हुए थे । उनका संग्रह पन्द्रहवों शताब्दी में आचार्य जिनदेवसूरि ने किया । यह संग्रह उन्होंने 'शिलोञ्छ' (कणिशादिचुण्टनम् ) अर्थात् इधर उधर बिखरे हुये धान्य-कणों के चयन के समान ही चयन कर प्रस्तुत कोष का निर्माण किया था और वह हेमचन्द्रीय अभिधानचिन्तामणिनाममाला का पूरक होने के कारण ग्रन्थकार ने इस कोष का नाम 'हैमनाममाला शिलोञ्छ' रखा है।
आचार्य जिनदेवमूरि । जैन श्वेताम्बर परम्परा में 'खरतगच्छ' एक प्रमुख गच्छ है । इस गच्छ की एक शाखा 'लधुखरतरगच्छ' नाम से प्रसिद्ध है । लघु खरतर शाखा का प्रादुर्भाव पट्टावलियों के मतानुसार वि सं. १२८० पल्हूपुर में आचार्य जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के समय में हुआ था । इस शाखा के प्रथम आचार्य जिनसिंहसूरि थे । इनके पट्टधर मुहम्मद तुगलक प्रतिबोधक आचार्य जिनप्रभसूरि हुये । आचार्य जिनप्रभ न केवल तीर्थोद्धारक या शासनप्रभावक ही थे अपितु न्याय, दर्शन, व्याकरण, काव्य, अलङ्कार, मन्त्रशास्त्र, जैनागम आदि विविधविषयके ग्रन्थों के प्रणेता, सफल टीकाकार, विशाल स्तोत्र-साहित्य के निर्माता एवं विविध तीर्थकल्प जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थों के रचयिता एवं अनेक भाषाओं के जानकार थे । इनका समय १३३२ से १४०० के मध्य का है। इन्ही के पट्टधर आचार्य जिनदेवसूरि थे ।
'जिनदेवसूरि गीत' के अनुसार इनके पिता का नाम सा. कुलधर और माता का नाम वीरिणि था । जन्म संवत् जन्म स्थान और दीक्षा संवत् आचार्यपद संवत् एवं स्थान
आदि के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ये श्री जिनप्रभसूरि के प्रमुख शिष्यों में से थे । जिनप्रभसूरि ने स्वहस्त से ही इनको आचार्यपद प्रदान किया था । वि. सं. १३८५ * में योगिनीपुर (दिल्ली) में आचार्य जिनप्रभसूरि जिस समय सम्राट मुहम्मद तुगलक से मिले थे उस समय जिनदेवरि भी साथ थे और नगर-प्रवेश महोत्सव के समय ये हाथी पर भी बैठे थे । जिस समय आचार्य जिनप्रभसूरि ने देवगिरि की ओर प्रस्थान किया था उस समय उन्होंने १४ साधुओं के साथ जिनदेवसूरि को सम्राट मुहम्मद तुगलक के पास दिल्ली में ही रखा था ।
जिनप्रभसूरि ने स्वरचित 'कन्यानयनीयमहावीरकल्प, में एक प्रसंग का उल्लेख करते हुये लिखा है:
"इधर दिल्ली में विराजमान जिनदेवसूरि विजयकटक (शाही छावणी) में सम्राट् से मिले । सम्राट् ने बहुत सन्मान के साथ एक सराय (मुहल्ला) जैन संघ के निवास करने के
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ. १५. २. विविधतीर्थकल्प पृष्ट ४५-४६ ३. विविधतीर्थकल्प पृ ४६..
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