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"शर्वत्ववश्य शिववान् स शश्वच्छिवोऽशिवान्याऽऽशु विशां शिवोव (?)। यच्छ्रेयसो विश्वसितीह विश्वं, विश्वं यशो यस्य हि शंसतीति ॥६॥ दोदोष्टि दुष्टेषु कदापि नो यस्तोतोष्टि शिष्टेषु जनेषु नित्यम् ।
शेश्लेष्टयभीष्टान् विदुषोऽनगारान्, रोरोष्टि ना रुष्टजने शिवोऽव्यात् ॥६८॥"
यह प्रशस्ति मेरे द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित हो चुकी है।
५. मातृकाश्लोकमाला इस श्लोकमाला की रचना वि. सं. १६५५ चैत्र मास में बीकानेर में हुई है । इसमें दो परिच्छेद हैं । प्रथम परिच्छेद में २७ पद्य है, और दूसरे परिच्छेद में २६ पद्य हैं। तथा अन्त में रचना प्रशस्ति में ६ पद्य हैं । प्रथम परिच्छेद में अ से झतक २५ वर्णों में आदिनाथ से महावीरस्वामी तक के चौवीसों तीर्थङ्करों की स्तवात्मक वर्णना है और द्वितीय परिच्छेद में अ से लेकर क्ष तक २६ वर्गों में विष्णु, महेश, ब्रह्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, चन्द्र, कुबेर, इन्द्र, शेष, मुनिपति, यम, राम, लक्ष्मण, वन, समुद्र आदि भिन्न-भिन्न पदार्थों की वर्णना है । ___ श्रीवल्लभ ने कुल ५१ वर्णों की वर्णमाला स्वीकार की है, स्वर १६ और व्यञ्जन ३५ । स्वरों में -अ. आ. इ.ई.उ. ऊ. ऋ. ऋ.ल. लू ए. ऐ. ओ. औ. अं. अः, तथा व्य ञ्जनों में--क. ख. ग. घ. ङ., च, छ. ज. झ. ञ, ट. ठ. ड. ढ. ण, त. थ. द. ध. न, प. फ. ब. भ. म, य. र. ल व, श. ष. स. ह. ल्ल और क्ष का समावेश किया है।
वर्णमाला की प्रसिद्धि मातृका के नाम से प्रसिद्ध ही है । मातृकाक्षरों से सम्बन्धित रचना होने के कारण इसका नाम मातृकाश्लोकमाला रखा गया है । प्रत्येक मातृकाक्षर, प्रत्येकप्रलोक के प्रत्येक चरण (पाद) के प्रारम्भ में गुम्फित किया गया है। अर्थात् प्रत्येक में प्रत्येक वर्णमाला का ४ बार प्रयोग हुआ है । उदाहरण के लिये लवर्ण का प्रयोग देखिये:
लतकनतजनानां मङ्गलानि प्रदेया, लफिडकपटहारी सार्व चन्द्रप्रभ त्वम् । लतनययतिराज्या गीतविख्यातकीति
लरिव विशदतेजाः केवलज्ञानभास्वान् ॥११॥ आशुता से कान्यकलाभ्यासी को प्रवीणता प्राप्त हो, यह इस रचना का उद्देश्य है ।
श्रीवल्लभ की प्रारम्भिक रचना होने पर भी इस कृति में प्रौढता, और काव्यगरिमा सर्वत्र लक्षित होती है । ५९ पद्यों की रचना में श्रीवल्लभ ने शार्दूलविक्रीडित, अनुष्टुपु, उपजाति, मालिनी, द्रुतविलम्बित, दोधक, स्वागता, हरिण'लुता, वसन्ततिलका, हरिणी, इन्द्रवज्रा, आर्या, आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है ।
इस श्लोकमाला की एकमात्र प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में मुनि श्री पुण्यविजयजी संग्रह में ग्रन्थाङ्क २८८८ पर अंकित है। १. श्रीमद्विकमनगरे प्रवरे द्रव्याट्यसभ्यजनवृन्दैः ।
इषुशरषोडशसंख्ये वर्षे मासे च चैत्राख्ये ॥१॥ प्रशस्ति.
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