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विद्वत्सभा (गोष्ठी) में मेधावियों के अभिमान का मन्थन करने के लिये और विद्वानों के वैदुष्यवृद्धि के लिये रचना की है। लेखक ने स्वयं के लिये 'वाचनाचार्यधुर्यश्री-श्रीघल्लभगणीश्वरैः' विशेषणों का प्रयोग किया है । लेखक ने प्रशस्ति में रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी अत्यन्त प्रौढ और क्लिष्टतम रचना होने के कारण इसका निर्माण समय १६६०-से १६६६ के मध्य का माना जा सकता है ।
इस अनुमान का आधार यह है कि श्रीवल्लभ ने अभिधानचिन्तामणि नाममाला की टीका में (र. सं. १६६७) स्वयं के लिये वादी शब्द का प्रयोग किया है, जो इस टीका रचना १६६७ के पूर्व किसी वाद प्रसंग की ओर संकेत करता है । 'विद्वद्गोष्ठ्यां विशिध्ठायां मेधाव्यभिमानोन्मथनाय' शब्दों से कल्पना की जा सकती है कि यह विशिष्ट विद्वद्गोष्टी शास्त्रार्थ को ही थी और विजयश्री प्राप्त करने के पश्चात् श्रीवल्लभने अपनी परवर्ती कतियों में अपने लिये वादी का प्रयोग किया हो । पिर भी निश्चित रूप से कुछ भी नहीं
हा जा सकता. क्योंकि इस पंक्ति के अतिरिक्त विदूत-प्रबोध में कहीं भी वाद का संकेत प्राप्त नहीं है।
कवि सौभरिप्रणीत द्वयक्षरकाण्ड में वर्णित कणा से लेकर विपर्यन्त संयुक्तवर्णों के
स से वस्तूवर्णना की गई है। इसमें तीन परिच्छेद हैं । प्रथम परिच्छेद के ६० पद्यों में चतुःचरणधारी गज, अश्व, वृषभ, सिंह, उष्ट्र आदि का वर्णन है । द्वितीय परिच्छेद के ६० पद्यों में द्विपदधारी शुक, तित्तिरि, हंस, बक, चक्रवाक, सारस, टिट्टिभ, मयूर, चाष, खजरीट आदि पक्षियों का वर्णन है । तृतीय परिच्छेद के २१ पद्यों में साधु, पण्डित और धीरजनों का वर्णन है । अन्तमें प्रशस्ति के ६ पद्य हैं । विशेषतः प्रत्येक पद्य में राजा को सम्बोधन करके प्रासंगिक वर्णन लिखा गया है।
इस काव्य पर स्वयं श्रीवल्लभ की ही स्वोपज्ञ टीका है । द्वितीय परिच्छेद के १९ पद्य से तो टीका न होकर टिप्पण मात्र ही प्राप्त है।
इस काव्य की परिचयात्मक महत्ता दिखाते हुये पद्मश्री मुनि जिनविजयजी ने 'एकाक्षर नामकोषसंग्रह' के संचालकीय वक्तव्य (पृ. १०) में लिखा है:
"यह एक कुतूहल-प्रदर्शक काव्याभ्यासी पद्यमय कृति है । इसकी रचना एक जैन विद्वान श्रीवल्लभगणि ने की है। यह एक केवल शब्दपाण्डित्य-प्रदर्शक अनोखी रचना है। रचनाकार ने शब्द-वैलक्षण्य की विचित्रार्थता प्रकट करने के उद्देश्य से इस विनोदात्मक पद्यरचना का गुम्फन किया है । प्रस्तुत संग्रह में सौभरिकृत जो 'एकाक्षर नामाला' मुद्रित हुई है उसके द्वयक्षरकाण्ड में क्वण, काण, वणु, वणौ आदि अनेक ऐसे संयुक्ताक्षर वाले एकस्वरीय शब्दों का संग्रह किया है जो अन्य संग्रहों में खास करके नहीं मिलते । इनमें अनेकानेक ऐसे संयुक्ताक्षर-युक्त एकस्वरीय शब्द हैं जिनका उच्चारण भी कठिन और विलक्षण प्रतीत होता है। कुछ की ध्वनि में तो ह्रा, ही, भ्रा, भ्री, स्रा, स्त्री आदि मन्त्राक्षरों जैसा आभास होता है. परन्तु कोषकार ने इनको मन्त्राक्षरी के बीज रूप में नहीं लिखा है, विचित्र शब्दध्वनि वाले शब्दों के रूप में संकलित किया है । ग्रन्थों में एसे शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं--सा उपलब्ध
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