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इस पद्य में ४८ अक्षर हैं । जिनमें १६ रकारों का प्रयोग हैं । अर्थात् प्रत्येक दो अक्षर के बाद रकार का प्रयोग है ।
चित्रकाव्य की रचना में छन्दः शास्त्र, व्याकरण, निर्वचन तथा कोष आदि पर पूर्ण आधिपत्य होना आवश्यक । जो इस कृति में स्पष्टरूप से लक्षित होता है । विचारवैदग्ध्य, रचनाकौशल तथा उक्तिवैचित्र्य की दृष्टि से यह काव्य एक सर्वोत्कृष्ट काव्य है ।
इस काव्य में अठारहवें जैन तीर्थंकर अरनाथ भगवान् की स्तुति की गई है । रकार गर्भात्मक ५४ पद्य हैं और ५५ वाँ पद्य उपसंहारात्मक प्रशस्तिरूप है । इस स्तोत्र काव्य पर स्वयं श्रीवल्लभरचित स्वोपज्ञ टीका प्राप्त है । यदि कवि स्वयं टीका की रचना न करता तो इसकी मार्मिकता समझने में काफी असुविधायें रहती ।
यह काव्य और टीका श्रीवल्लभ के प्रौढावस्था की रचना है; अतः इस काव्य की भाषा भी बहुत ही प्राञ्जल और प्रवाहपूर्ण है । इस स्तोत्र में कवि को अनिष्पन्न और अप्रचलितशब्दों को रकारगर्भित करने के लिये जिस योजना - कौशल और पाण्डित्य की आवश्यकता थी वह इसमें पूर्णरूपेण विद्यमान है । जहां १००० रकार प्रधान काव्य की रचना करना हो, वहाँ उस काव्य में प्रायः अधिक शब्द तो उन्हें सिद्ध करने के लिये उणादि सूत्र, और अनेकार्थी तथा आश्रय लेना हो पड़ता है । टीकाकार श्रीवल्लभ ने भी इसमें धातुपारायण, पाणिनीयादि व्याकरण, कविकल्पद्रुम, अनेकार्थनाममाला, सौभरि, सुधाकलश, विश्वशंभु, ध्वनिमञ्जरी आदि एकाक्षरी नाममालाओं के आधार पर ही शब्दों की निष्पत्ति कर अपने विलक्षण पाण्डित्य का परिचय दिया है । उदाहरणार्थ अकडारशब्द की व्याख्या द्रष्टव्य है :
अप्रसिद्ध ही प्रयुक्त होते हैं । एकाक्षरी नाममालाओं का हैमव्याकरण, उणादिसूत्र,
हे अकडार ! न कडारः- न विषमदन्तो यः सोऽकारः, 'कडारः पिङ्गलः विषमदशनश्च' [सि. हे. उ. सू. ४०५] इति उणादिवचनात् तत्सम्बोधनं हे अकडार ! - हे सुदन् ! हे श्री अरनाथजिन ! [ पद्य ५३ ] श्रीवल्लभ ने इस काव्य में और टीका में रचना - समय का निर्देश नहीं किया है, फिर भी 'श्रीमच्छ्रोजिनचन्द्राभिधान सूरिष्वधीशेषु,' [प्र. प. र] श्रीजिनचन्द्रसूरि के राज्य में होने से स्पष्ट है कि १६७० के पूर्व की यह रचना है, क्योंकि जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास १६७० में हो चुका था । और स्वयं के लिये गणिपद का ही प्रयोग होने से स्पष्ट है कि १६५५ से १६७० के मध्य में श्रीवल्लभ ने टीका सहित इसकी रचना की है ।
इस काव्य को एकमात्र प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना में प्राप्त है । मेरे द्वारा सम्पादित होकर यह काव्य टोका सहित सन् १९५३ में 'अरजिन स्तव' के नाम से प्रकाशित हो चुका है ।
३ विद्वत्प्रबोधकाव्य स्वोपज्ञ टीका सह
श्रीवल्लभ ने विद्वत्प्रबोध की रचना बलभद्रपुर ( संभव है उसे ही आजकल बालोतरा कहते हैं जो जोधपुर प्रदेश में पचपदरा के पास है ) में बलभद्र नामक शासक की विशिष्ट
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