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साथ विवाद हो जाने से साधारण जिन स्तुति के वास्तविक अर्थ को त्याग कर, अजितनाथ स्तुति के रूप में नवोनार्थद्योतक टीका की मैंने यथामति रचना की है :
केनापि विदुषा सार्द्ध विवादादजितार्हतः ।
वर्णना वर्णिता त्यक्त्वा वास्तवार्थे यथामति ॥७॥ महाराजा सूरसिंहजी के राज्यकाल में जोधपुर में यह रचना हुई है । अतः अनुमान है कि यह विवाद जोधपुर में ही हुआ हो ।
मेरे विचारानुसार, विद्वत्प्रबोध की रचना भी ऐसे ही किसी शास्त्रार्थ के रूप में ही कवि ने की हो ! कवि स्वयं लिखता है कि:-'बलभद्रपुर में बलभद्र के राज्य में, विशिष्ट विद्वद्गोष्ठी में मेधावियों के अभिमान का नाश करना ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है:
विद्वद्गोष्ठयां विशिष्टायां सजातायां प्रयोजनम् ।
एतद्ग्रन्थस्य मेधाव्यभिमानोन्मथनाय वै ॥ ३ ॥ हालांकि इस कृति में 'वादी' शब्द का प्रयोग नहीं है 'वाचनाचार्यधुर्यश्रीश्रीवल्लभगणीश्वरैः' शब्दों का गौरव के साथ प्रयोग किया है।
चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल तो स्पष्टतः वाद की कृति ही है । इसमें किसी कूर्चालसरस्वतीबिरुदधारक प्रतिपक्षी द्वारा स्थापित मान्यता का परिहार कर १४ स्वरों की स्थापना की गई है। यह वाद सं. १६७४ के पश्चात् कहीं पर हुआ है। . .
म प्रकार हम देखते हैं कि १६६७ के पूर्व से लेकर १६७४ के पश्चात तक श्रीवल्लभ ने कई विद्वद्गोष्ठियों में और कई शास्त्रार्थों में भाग लिया है और वहाँ अपने वैदुष्य की पूर्ण रूपेण प्रतिष्ठा की है । अतः अपने नाम के साथ वादी विशेषण श्रीवल्लभ के लिये सार्थक हो प्रतीत होता है ।
विशालहृदयता उस समय १७ वीं शताब्दी में खरतरगच्छ और तपगच्छ में विधिवाद विषयक विवाद प्रबलवेग से चल रहा था और उसमें दोनों गच्छों के प्रमुख -प्रमुख व्यक्ति भाग ले रहे थे। इधर तपगच्छ की ओर से उपाध्याय धर्मसागर, नेमिसागर; लब्धिसागर आदि और खरतरगच्छ की ओर से महोपाध्याय धनचन्द्र, महो. साधुकोति, उ. जयसोम, उ. 'गुणविनय, मतिकीर्ति आदि लगे हुये थे । यही नहीं, किन्तु सब गच्छों के माननीय शान्तमना महर्षि महोपाध्याय समयसुन्दर जैसे भी (किसी पूर्वाभिनिवेश या दुराग्रह के वशीभूत होकर नहीं, किन्तु स्तनिरूपण की दृष्टि से) अपने ग्रन्थों में उ. धर्मसागर प्ररूपित प्रश्नों को सरलतापूर्वक खण्डन कर स्वगच्छ की आचरणाओं का मण्डन कर रहे थे । इन दोनों गच्छों के विवाद ही नहीं, किन्तु विजयदेवसूरि (जिनके लिये उ. श्रीवल्लभ ने विजयदेवमाहात्म्य की रचना की के समय में तपगच्छ में भी 'विजय' और 'सागर' के विवाद समाज में ऐसे विषैले बीजों का वपन कर रहे थे, जिससे समाज का संगठन छिन्न-भिन्न हो जाय । परन्तु तत्का
गळनायकों की चातुरी से समाज तो छिन्न-भिन्न नहीं हुआ किन्तु दो टुकडे अवश्य हो गये, जो आज भी मौजूद है ।
१ देखें, विजयतिलकसूरिरास
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