Book Title: Gyandhara Karmadhara Author(s): Jitendra V Rathi Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ १६ ज्ञानधारा-कर्मधारा है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए उपचार से शुभभाव को धर्म का साधन कहा है; किन्तु वस्तुतः शुभभाव धर्म के साधन नहीं हैं। निश्चय से जिन्हें स्वरूपदृष्टि-अनुभव हुआ है, उस जीव को व्यवहार देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा का राग होता है। उस राग को व्यवहार सम्यक्त्व भी कहा गया है, परन्तु वस्तुत: वह यथार्थ सम्यक्त्व नहीं है । वह तो राग है, बन्ध का ही कारण है। हे भाई! स्वावलम्बी भाव संवर-निर्जरा का कारण होने से मोक्षमार्ग है एवं परावलम्बी भाव बन्ध का कारण होने से बन्धमार्ग है। वह परावलम्बी भाव भगवान की भक्ति-व्रत-तपरूप हो या विषयकषायरूप हो । व्रत-तप-भक्ति रूप भावों को मोक्षमार्ग कहना तो केवल उपचार है, वस्तुत: वह मोक्ष का कारण नहीं है। निश्चय-व्यवहार क सर्वत्र यही लक्षण समझना चाहिए। श्रीमद राजचन्द्रजी ने आत्मसिद्धि में कहा है- एक होय त्रण काल मां, परमारथ नो पन्थ । परमार्थ का पन्थ तीनों काल में एक ही होता है। अपने शुद्ध चैतन्यस्वभावमय वस्तु के अवलम्बन से जो निर्मल पर्याय प्रकट होती है, वह एक ही मोक्ष का मार्ग है। मोक्षमार्ग दो नहीं; अपितु उसका निरूपण दो प्रकार से किया जाता है। उनमें यथार्थ का नाम निश्चय है और उपचार का नाम व्यवहार है । इससे विपरित दो प्रकार का मोक्षमार्ग मानना, यह भारी भूलमिथ्यात्व है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों एवं पाँचवें गुणस्थानवाले तीर्थंकरों को भी अशुभभाव होता है। उत्तरपुराण में कहा गया है कि- “यद्यपि तीर्थंकर, चक्रवर्ती, कामदेव आठ वर्ष की आयु में पंचम गुणस्थान धारण कर लेते हैं । वहाँ चक्रवर्ती ९६ हजार रानियों के बीच में रहते हुए सभी प्रकार के भोगोपभोग भोगते हैं, उससमय उनके जो रागधारा वर्तती है, वह बन्ध का काम 9 समयसार कलश ११० पर प्रवचन १७ करती है और जितने अंश में ज्ञायकभाव जाग्रत हुआ, उतने अंश में रागभाव का ज्ञाता-दृष्टा होने से संवर-निर्जरा होती है।" उक्त बात का विवेचन करते हुए पाण्डे राजमलजी कलश टीका में कहते है कि - "यहाँ कोई अज्ञानी जीव ऐसी प्रतीतिपूर्वक भ्रान्ति करे कि मिथ्यादृष्टि का क्रियारूप यतिपना बन्ध का कारण है और सम्यग्दृष्टि का शुभक्रियारूप यतिपना मोक्ष का कारण है; क्योंकि अनुभवज्ञान तथा दया दान- व्रत-तप-संयमरूप क्रियाएँ दोनों मिलकर ज्ञानावरणादि कर्म का क्षय करते हैं। उसका समाधान यह है कि जितनी शुभ-अशुभ क्रिया, बहिर्जल्प-अन्तर्जल्परूप विकल्प, द्रव्यों का विचार अथवा शुद्धस्वरूप का विचार हैं, वे समस्त भाव कर्मबन्धन का ही कारण हैं; क्योंकि सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिरूप भेद नहीं होने से क्रिया का स्वभाव एकसमान ही है; अत: जैसी क्रिया है वैसा ही बन्ध होता है। यद्यपि एक ही काल में सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्ध ज्ञान और क्रियारूप परिणाम दोनों ही है, तथापि क्रियारूप परिणाम से केवल बन्ध है, कर्मक्षय नहीं होता तथा उसीसमय शुद्धस्वरूप अनुभवज्ञान से कर्मक्षय होता है, बन्ध नहीं होता; क्योंकि शुद्धता रूप परिणमन ही मोक्ष है । प्रश्न :- एक जीव के एक ही काल में ज्ञान व क्रिया दोनों किस प्रकार से होते हैं, स्पष्ट कीजिये ? समाधान :- इसमें विरुद्ध कुछ भी नहीं है। कितने ही काल तक दोनों एकसाथ होते हैं - ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है । वहाँ वे दोनों एकदूसरे के विरोधी जैसे लगते हैं; किन्तु सब अपने-अपने स्वरूप से हैं, कोई किसी का विरोध नहीं करते।" इसप्रकार ज्ञानस्वरूपी आत्मा में एकाग्र होकर प्रवर्तमान ज्ञानधारा संवर- निर्जरा का कारण है और बहिर्मुखपने से प्रवर्तती शुभाशुभ रागधाराPage Navigation
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