________________
बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन
ज्ञानधारा-कर्मधारा से कही जाती है । हे भाई! अपने आनन्दस्वरूप की मुख्यता से दुःखरूप परिणाम को गौण करके अल्पबंध की स्थिति को यहाँ स्वीकार नहीं किया, अतः सम्यग्दृष्टि को दुःख नहीं है - ऐसा भी कहने में आता है तथा जहाँ चारित्र की अपेक्षा वर्णन किया है, वहाँ शुभभाव को बंध का कारण कहा है। स्तुति में भी आता है कि -
"लागी लगन हमें जिनराज...... । सुजस सुन प्रभु तेरा, भाग्य जगा मेरा । मैं आनन्द शुद्ध चैतन्य घन हूँ, अब भाग्य जगा मेरा ।। काहू कहें, कबहूँ न छूटे, लोक लाज सब डारी। जैसे अमली अमल करत, हमें लाग रही हो खुमारी ।।"
जिसप्रकार अफीम पीनेवाले को नशा चढ़ता है, उसीप्रकार ज्ञानियों को अन्तर ज्ञानानन्द की मस्ती चढ़ी है - ऐसे ज्ञानानन्द में लीन उन्हें दुःख का वेदन रंचमात्र भी नहीं है। ___ चारित्र की मुख्यता से विचार करे तो जबतक अन्तर में चारित्र की पूर्णता नहीं है, तब तक क्षायिक सम्यग्दृष्टि को भी बंध के परिणाम हैं। तीर्थंकर भी जब छद्मस्थ-मुनि अवस्था में रहते है, तब उन्हें भी पाँच महाव्रतादि के विकल्प अवश्य आते ही हैं, किन्तु वे सब बंध के ही कारण हैं। उससमय स्वद्रव्य के आश्रय से जितना शुद्ध परिणमन है, उतना मोक्ष का कारण है। ___ यह केवलज्ञान दशा के पूर्व की बात है। तीर्थंकर जब छद्मस्थमुनि अवस्था में होते हैं, तब आहार के लिए जाते हैं, उन्हें आहार तो रहता है; किन्तु निहार नहीं होता। त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवान को जन्म से ही परमौदारिक शरीर है। मुनिरूप छद्मस्थदशा में उन्हें भी आहार-विहार का विकल्प आता है; किन्तु वह विकल्प भी उनके लिये बंध का ही कारण है।
जगत के जीव पाँच महाव्रत और तप आदि को मोक्ष का कारण मानते हैं; किन्तु ऐसा नहीं है।
जीवों की दृष्टि ही मिथ्या है; अतः राग-व्रत आदि विषसमान बंधन के कारण होने पर भी अज्ञान के कारण इस जीव को मोक्ष का कारण भासित होते हैं; किन्तु राग की क्रिया से मोक्ष होगा - ऐसा त्रिकाल संभव नहीं है।
प्रश्न :- यदि ऐसा है तो जो लोग दया-दान-व्रतादि करने से कल्याण होगा - ऐसी प्ररूपणा करते हैं, उनका उपदेश कैसे असत्य होगा? वे मिथ्यादृष्टि है इस बात की जानकारी कैसे होगी ?
समाधान :- अहाहा ! व्रत-तपादिरूप समस्त शुभभाव बंध के ही कारण हैं - ऐसा जिसने निर्णय किया, उसकी दृष्टि सम्यक् हो गई है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि के समस्त व्रतादिरूप विकल्प बंध के ही कारण हैं, मोक्ष के कारण कदापि नहीं। ___कोई सेठ दान देवें तो लोग उसे दानवीर कहते हैं, किन्तु भाई ! वास्तव में अपने निर्मल आनन्द का दान जिसने अपनी पर्याय को दिया है और पर्याय ने भी उसे स्वीकार किया, वह वास्तव में दानवीर है।
यहाँ कहते हैं कि जो राग का स्वामी है, व्रत-तपादि विकल्पों का स्वामी है, वह मिथ्यादृष्टि है। __इससे विपरीत सम्यग्दृष्टि को राग और व्रतादि होते हैं; किन्तु उनका स्वामीपना उसे नहीं है। व्रत-पूजा-भक्ति इत्यादि भाव ज्ञानी को हेयबुद्धिरूप वर्तते हैं। हेयबुद्धिरूप होने पर भी वे भाव उसे बंध के ही कारण हैं। राग थोड़ा हो; किन्तु वह आत्मा को लाभदायक है - ऐसा ज्ञानी नहीं मानते। रागादि में अपनापन मानना यह भगवान की जाति का उपदेश नहीं है; किन्तु जगत के जीवों को यही बात अच्छी लगती है, अत: वे सर्वथा भगवान की जाति के बाहर है।
17