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ज्ञानधारा-कर्मधारा
आत्मा शुद्ध चैतन्यरूप है। निमित्त और विकार को गौण करके शुद्ध चैतन्य की प्रतीति होने पर पर्याय में दया- दानादि के परिणाम हुए बिना नहीं रहते । जहाँ तक राग और अल्पज्ञता है, वहाँ तक कार्य अधूरा है और जहाँ अन्तर- स्थिरतापूर्वक ज्ञान हुआ, वहाँ पूर्णता ओर कार्य अग्रसर हुआ।
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आत्मा अनन्तगुणों की सामर्थ्य से भरा है - ऐसी प्रतीति ही मुक्ति का कारण है; किन्तु रागादि परिणाम मुक्ति के कारण नहीं हैं।
जबतक ज्ञान, ज्ञान में पूर्णरूप से स्थिर नहीं हुआ और रागादि मलिन परिणामों में रुका हुआ है, तबतक मलिनता है, बंध है तथा 'मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ' - ऐसी प्रतीति और ज्ञान ही मुक्ति का कारण है ।
आत्मा की यथार्थ प्रतीति में भव बाधा मिटाने की सामर्थ्य है, अतः 'मेरा आत्मा स्वभाव से परमात्मा है' - यह प्रतीति ही मुक्ति का कारण है। इस बीच दया- दानादिरूप शुभवृत्तियाँ आवें तो आवें, वे सब मलिनभाव हैं, उन्हें टालने की सामर्थ्य स्वयं श्रद्धा में है।
जबतक आत्मा स्वयं परमात्मा न हो, तबतक अल्पज्ञता और राग-द्वेषादि वर्तते हैं, वह कर्मधारा है तथा आत्मा का भान होने पर भी रागादि परिणाम और अल्पज्ञता टालने की ताकत मिश्रधारा में नहीं है।
यहाँ कोई कहे कि मिश्रधारा में ऐसी योग्यता क्यों नहीं है ? क्या कर्मादि उसमें कारण हैं ? तो उससे कहते हैं कि यहाँ कर्मादि कारण नहीं, बल्कि मिश्रधारा में स्वयं की ही वैसी योग्यता है।
धर्मी जीव की धर्मदशा शुद्ध चिदानन्द आत्मा की प्रतीति में है । पर्याय में पूर्ण निर्मलता प्रकट नहीं है, अतः जो अशुद्धता वर्तती है, उसे अन्तरात्मा टाल नहीं सकता। वहाँ पुरुषार्थ कमजोर है । यदि पुरुषार्थ
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मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन
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बढ़ जाये तो वीतरागता और सर्वज्ञता प्रकट हुए बिना नहीं रहती ।
साधकजीव ने मैं चैतन्य - ज्योतिस्वरूप आत्मा हूँ, अन्य नहीं तथा इससमय अन्तर में उत्पन्न हो रहे रागादि परिणाम अपराध हैं, त्रिकालस्वरूप नहीं - ऐसा स्व-स्वरूप का पक्का निर्धारण किया है; फिर भी रागादि अभी शेष हैं।
'पर्याय में राग अथवा अल्पज्ञता नहीं है'- ऐसा कोई मिथ्याज्ञान करे तो उसका व्यवहार मिथ्या होने से वह मिथ्यादृष्टि है तथा राग और अल्पज्ञता को आदरणीय मानकर उससे निश्चय प्रकटेगा ऐसा कोई माने तो वह भी मिथ्यादृष्टि ही है। आत्मा का भान हुआ, वह निश्चय और जितने अंश में राग व अल्पज्ञता शेष है, उसे जानने का नाम व्यवहार है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव विरचित ग्रन्थाधिराज समयसार की १२वीं गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं कि “यदि निश्चयनय को छोड़ोगे तो तत्त्व का नाश हो जायेगा तथा व्यवहार को नहीं समझोगे अर्थात् किस भूमिका में कितना राग वर्तता है, उसका ज्ञान नहीं करोगे, तो तीर्थ का नाश होने से जीव मिथ्यादृष्टि हो जायेगा ।
जो जीव अल्पज्ञता में सर्वज्ञता और राग में वीतरागता मानता है, उसने तीर्थ को छोड़ दिया है, व्यवहार को छोड़ दिया है।
व्यवहारनय को नहीं छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि शरीरादि परपदार्थों की क्रिया नहीं छोड़ना हैं। बाह्य परपदार्थ की तो बात यहाँ है ही नहीं; क्योंकि आत्मा परपदार्थ की क्रिया को न कर सकता है और न ही छोड़ सकता है।
वास्तव में जबतक यह आत्मा स्वरूप में पूर्ण स्थिर नहीं होता, तबतक राग-द्वेषादि परिणाम और अल्पज्ञता वर्तती है। चौथे, पाँचवें, छठवें गुणस्थानों में अथवा इस भूमिका में जो-जो रागादि परिणाम