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मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन
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ज्ञानधारा-कर्मधारा सम्यग्दर्शन होने मात्र से सभी गुण तत्काल शुद्ध नहीं होते। द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव देखकर सम्यग्दृष्टि को शक्ति अनुसार तप-त्याग भाव होता है - ऐसा वीतराग का मार्ग है।
क्षायिक सम्यग्दर्शन में किसी प्रकार का आवरण नहीं है; अत: वह पूर्ण निर्मल है, तथापि चारित्र पूर्ण निर्मल नहीं होने से परम (परमावगाढ़) सम्यक्त्वपना नहीं है।
धर्मी अपने परिणामों को देखकर प्रतिज्ञा लेता है; परन्तु हठपूर्वक प्रतिज्ञा लेना वीतराग का मार्ग नहीं है। सम्यग्दृष्टि समझता है कि मेरे परिणामों में शिथिलता है, राग है। अतः अन्तर में परिणामों की ऐसी दृढ़ता आये कि प्राण छूट जायें पर प्रतिज्ञा भंग न हो।
श्रद्धा गुण में क्षायिक सम्यग्दर्शन होने पर कोई कमी नहीं रही, तथापि वहाँ सभी गुण पूर्ण निर्मल नहीं हुए हैं, अतः मिश्रधर्म है।
बारहवें गुणस्थान तक यही दशा रहती है, इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वहाँ धर्म की पूर्णता नहीं है। सम्यग्दर्शन तो पूर्ण है, परन्तु अन्य गुण पूर्ण निर्मल नहीं हुए हैं; अतः यहाँ मिश्रधर्म है।
आत्मा में उत्पन्न विभावभावों को ज्ञानी अपने कारण से होना मानता है और अज्ञानी वे विभावभाव निमित्त से होते हैं - ऐसा मानकर स्वच्छन्दी होता है, इसकारण उसके मिथ्यात्व का नाश नहीं होता। विभावभाव आत्मा में अपने कारण से उत्पन्न होते हैं - ऐसा मानकर कोई विभावभाव को ही अपना माने तो वह भी मिथ्यादृष्टि है।
विभावभाव पर्याय में अपने कारण से होते हैं, कर्म के कारण नहीं, परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है - ऐसा मानते हुए ज्ञानी उनके नाश का पुरुषार्थ करता है।
पाण्डे राजमल्लजी कृत समयसार कलश टीका में कहा है कि -
“जो जीव आत्मा में रागादिभाव कर्म के कारण उत्पन्न होते हैं - ऐसा मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है, अनन्त संसारी है।" ___ क्षायिक सम्यग्दृष्टि के भी रागादि परिणति चारित्र मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण नहीं है तथा चारित्र पूर्ण नहीं है; अतः सम्यक्त्व गुण में कोई कमी है - ऐसा भी नहीं। चेतन-अचेतन की भिन्न प्रतीति से सम्यक्त्व गुण स्वयं निज जातिरूप होकर परिणमा है अर्थात् मैं ज्ञायकमूर्ति चेतन आत्मा हूँ, मैं अचेतन नहीं - इसप्रकार ज्ञान स्वयं अपनी जातिरूप होकर परिणमा है।
अनन्त शक्ति से युक्त यह आत्मा विकाररूप हो रहा था; किन्तु अब ज्ञान गुण की अनन्तशक्ति में से कुछ शक्ति प्रकट हुई, जिसे मतिश्रुतज्ञान कहते हैं। आत्मा का लक्षण ज्ञान है। वह ज्ञानशक्ति परद्रव्य के कारण विकाररूप हो रही थी; किन्तु स्वद्रव्य के अवलम्बन से सामान्यतः उस ज्ञान की मति-श्रुत पर्याय को सम्यक् कहा जाता है। ___ वह ज्ञान जाति अपेक्षा सम्यक् हुआ; तथापि जघन्य है, पूर्ण निर्मल नहीं। यद्यपि स्वसंवेदन ज्ञान को भावश्रुतज्ञान कहते हैं; किन्तु अभी ज्ञान में पूर्णता प्रकट नहीं हुई। इसकारण उसे अज्ञानपना कहा जाता है अर्थात् यहाँ ज्ञानावरण कर्म के उदय के कारण औदयिक अज्ञान - अपूर्णता है, अतः उसे विकाररूप कहकर अज्ञानभाव कहा है।
जिससमय धर्म होता है, उससमय अधर्म भी होता है। यदि आंशिक धर्म प्रगट होते ही धर्म की पूर्णता माने, तो उस जीव ने साधकदशा और मिश्रधर्म को समझा ही नहीं है।
अभी ज्ञान में पूर्णदशा नहीं है, अल्पज्ञता है; उसे विकार कहते हैं। यहाँ आवरणरूप कर्म की बात नहीं हैक्योंकि वह तो जड़ है, परन्तु आत्मा की पूर्ण पर्याय प्रकट होने में जितनी कमी - हीनता है, उसको
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