________________
१००
ज्ञानधारा-कर्मधारा
सात तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहा है। जीवाजीवादि सात तत्त्वों के यथार्थ भावभासन बिना कर्म का उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय नहीं हो सकता। पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा १७३ की टीका में आचार्य जयसेन ने तत्त्वार्थसूत्र को द्रव्यानुयोग का शास्त्र माना है और द्रव्यानुयोग में द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों की व्याख्या समाहित है।
जिसे तत्त्वार्थ का यथार्थ भावभासन नहीं है - ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव की यह चर्चा है। यहाँ नामनिक्षेप अथवा आगम द्रव्यनिक्षेप से तत्त्वश्रद्धा कही गई है। आगम से धारणा करें; किन्तु स्वयं को भावभासन नहीं हो तो श्रद्धा सम्यक् नहीं है। यहाँ तो निश्चय सम्यग्दर्शन की बात कही है।
एक क्षण में जो मिश्रभाव होता है उसमें दो कार्य तो हो सकते हैं; किन्तु महाव्रतादि परिणामरूप जो आस्रवभाव हैं, उन्हें संवर-निर्जरा मानना यह भ्रम है। ___अंतर से निर्विकल्प शांति और आनन्द की उत्पत्ति हो वह संवर है, तथापि जो प्रशस्त रागभाव आस्रव का कारण है, उसे संवर-निर्जरा का कारण मानना, यह संवरतत्त्व संबंधी भूल है।
शुभराग संवर नहीं, अपितु आस्रवभाव है। आत्मा में पंच महाव्रत, भक्ति आदि के परिणाम शुभास्रव (शुभराग) है; इस शुभराग को ही कोई आस्रव और संवर दोनों स्वीकारें, तो यह भूल है। एक शुभराग से आस्रव तथा संवर दोनों कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते।
मिश्रभाव का ज्ञान सम्यग्दृष्टि को होता है; किन्तु वहाँ जो शुभराग है, वह धर्म नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ - ऐसे स्वभाव श्रद्धा-ज्ञान से जितना वीतरागभाव हुआ वह संवर है, धर्म है और उसीसमय जो राग शेष है, वह आस्रव है। एक ही समय में ऐसा मिश्ररूपभाव विद्यमान होनेपर भी ज्ञानी जीव उसमें से वीतराग-अंश और सराग-अंश - दोनों को भिन्नभिन्न जानता है।
ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हृदयोद्गार
१०१ दिगम्बर सम्प्रदाय में रहते हुए भी कोई जीव प्रथमतः व्यवहार अंगीकार करे और पश्चात् निश्चय होता है - ऐसा कहे तो यह संभव नहीं है। व्यवहाररूप शुभराग तो आस्रव है और आस्रव कदापि संवर का कारण नहीं हो सकता । व्यवहार करते-करते निश्चय प्रगट होता है - ऐसी दृष्टि से ही तो सनातन जैन परम्परा से पृथक् होकर श्वेताम्बरमत चल निकला है। राग करते-करते धर्म प्रगट होगा, व्यवहार करतेकरते निश्चय होगा - ऐसा माननेवाला जीव श्वेताम्बर जैसे ही अभिप्रायवाला है, उसे तो दिगम्बर जैनधर्म की खबर ही नहीं है।
राग करते-करते सम्यग्दर्शन हो जायेगा; अतः प्रथमत: व्यवहारक्रिया को सुधारे, पश्चात् धर्म होगा - ऐसा माननेवाले ने दिगम्बर जैन शासन का स्वीकार ही नहीं किया है। अन्तर में राग का आदर हो और अपने को दिगम्बर जैन कहे, उसे तो जैनधर्म की खबर ही नहीं है। वह व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टि है।
आत्मद्रव्य वस्तु एक समय में सामान्य शक्ति का भण्डार है, उसमें विशेषरूप अनंत पर्यायें है। उस अभेद आत्मद्रव्य की सामान्य दृष्टि करे तो पर्याय में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रकट होता है; किन्तु यह जीव उस अभेद का तो आश्रय करता नहीं और व्यवहार के आश्रय से कल्याण हो जायेगा - ऐसा मानता है। वास्तव में वह जीव अनादिरूढ़ व्यवहार-विमूढ़ मिथ्यादृष्टि है।
द्रव्यस्वभाव की दृष्टिपूर्वक जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट हुआ, उससमय वहाँ जो राग शेष है, उसे उपचार से व्यवहार कहा जाता है; किन्तु धर्मी की दृष्टि में उसका रंचमात्र भी आदर नहीं है।
पर्यायदृष्टि से आत्मा राग से अभिन्न और त्रिकाली द्रव्यदृष्टि से राग से भिन्न ज्ञायक स्वरूप है। वहाँ त्रिकाली की दृष्टि करके राग को हेय कहकर व्यवहार कहा गया है।
51