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ज्ञानधारा-कर्मधारा व्यवहार परिणति मानी गई है, सिद्ध को व्यवहार से रहित कहा है। शास्त्रों में जहाँ जो विवक्षा हो वही समझना चाहिए।
इसप्रकार संसारी जीव की अवस्था के अशुद्ध, मिश्र और शुद्ध - तीन भेद बतलाये । संसार में से मोक्ष जानेवाले प्रत्येक जीव की यह तीनों अवस्थायें हो जाती हैं।
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अशुद्धता तो अज्ञानदशा में सर्व संसारी जीवों के अनादि से वर्त रही है; पश्चात् आत्मज्ञान होने पर साधन-भावरूप मिश्रदशा प्रगट होती है, और शुद्धता वृद्धिंगत होते-होते केवलज्ञान होनेपर साध्यरूप पूर्ण शुद्धदशा प्रगट होती है, पश्चात् अल्पकाल में मोक्षपद प्राप्त होता है।
अशुद्धदशा तो आस्रव-बन्धतत्त्व है, मिश्रदशा में जितनी शुद्धता है, उतनी संवर- निर्जरा है तथा जो अल्प-अशुद्धता है, वह आस्रवबन्ध का ही है। पूर्ण शुद्धता प्रगट हुई वह भावमोक्ष है। यहाँ द्रव्यमोक्षरूप सिद्धदशा की बात नहीं है, क्योंकि यहाँ समस्त चर्चा संसारी जीवों की अपेक्षा से कहीं गई है।
अज्ञानी के मात्र अशुद्धता है; चौथे गुणस्थान से कुछ शुद्धता और साथ में राग भी है - इसप्रकार मिश्रपना है, बारहवें गुणस्थान में वीतराग है अर्थात् वहाँ राग नहीं है; परन्तु ज्ञानादिगुणों की अवस्था अपूर्ण है, इसलिए वहाँ भी मिश्रभाव कहा।
केवलज्ञानी के ज्ञानादि पूर्ण हो गये हैं, इसलिए शुद्धता मानी है; तथापि अभी (१३-१४ वें गुणस्थान में ) सिद्धपना नहीं है अर्थात् असिद्धत्व होने से उनको भी व्यवहार में परिगणित किया; क्योंकि शरीर के साथ अभी उसप्रकार का सम्बन्ध है और परिणति में उसप्रकार की योग्यता है । जब सिद्धदशा हुई तब व्यवहार छूट गया और व्यवहार छूटा, वहाँ संसार छूटा अर्थात् वह जीव व्यवहारातीत हुआ, वहाँ संसारातीत हुआ । (पृष्ठ : ३०-३३)
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ज्ञानधारा - कर्मधारा को पोषक गुरुदेव श्री के हृदयोद्गार
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जिसने अध्यात्म विद्या जानी है, ऐसे ज्ञानी के मिश्रव्यवहार कहा है अर्थात् शुद्धता और अशुद्धता - दोनों ही उसके एकसाथ होती है; किन्तु एक साथ होने पर भी शुद्धता और अशुद्धता एक दूसरे में मिल नहीं जाती ।
जो अशुद्धता है, वह कहीं शुद्धतारूप नहीं हो जाती और जो शुद्धता है, वह कहीं अशुद्धतारूप (रागादिरूप) नहीं हो जाती । एक साथ होने पर भी दोनों की भिन्न-भिन्न धारा है।
इसप्रकार 'मिश्र' शब्द दोनों का भिन्नत्व सूचक है, एकत्व सूचक नहीं। उसमें जो शुद्धता है, उससे धर्मी जीव मोक्षमार्ग को साधता है और जो अशुद्धता है, उसको वह हेय समझता है। (पृष्ठ : ७७) * मोक्षमार्ग प्रकाशक सातवें अध्याय के आधार से -
प्रश्न :- मुनिराज को एक ही काल में ये दोनों भाव होते हैं, सो वहाँ उनको बन्ध भी है और संवर- निर्जरा भी हैं, वह किसप्रकार ?
उत्तर :- ये दोनों भाव मिश्ररूप हैं। वहाँ मुनिराज को चिदानन्द आत्मा के आश्रय से जो वीतरागी दशा प्रगट हुई, वह संवर अर्थात् अकषाय परिणति वीतरागभावरूप यथार्थ मुनिपना है और जितना राग शेष है, वह आस्रव है, व्यवहार है, बन्ध का कारण है।
वहाँ सर्वथा व्यवहार न हो तो केवलज्ञानदशा होनी चाहिए और यदि व्यवहार से लाभ माने तो वह मिथ्यादृष्टि है; किन्तु साधक जीव के अंशत: शुद्धता और अशुद्धता होने से वह शुभराग को हेय मानता है । प्रश्न :- फिर शुभराग करना चाहिए या नहीं।
समाधान:- हे भाई! तुम किस राग को कर सकते हो ? चारित्र गुण की जो क्रमबद्ध पर्याय होनी है, वही होगी; उसे किसी प्रकार से बदला नहीं जा सकता। ज्ञानी को शुभराग बदलने या करने की दृष्टि नहीं है, उसे तो अपने स्वभाव में एकाग्र होने की ही भावना है।
आचार्य उमास्वामी ने भी 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' कहकर