Book Title: Gyandhara Karmadhara
Author(s): Jitendra V Rathi
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 49
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हदयोदगार ९७ तो ठीक; परन्तु ज्ञानादि गुणों की अभी अवस्था अपूर्ण है अर्थात् अल्प-ज्ञानादि की अपेक्षा से (उदयभावरूप अज्ञानभाव है इस अपेक्षा से) अशुद्धता परिगणित कर मिश्रभाव कहा। प्रश्न :- यदि ऐसा है तो केवली भगवान के भी योग का कम्पन आदि उदयभाव है, इसलिये उनके भी मिश्रपना कहना चाहिये? उत्तर :- नहीं, केवली भगवान के ज्ञानादि परिणति सम्पूर्ण शुद्ध हो गई है और अब जो योग का कम्पन आदि है, वह नवीन कर्मसम्बन्ध का कारण नहीं होता अर्थात् उनके अकेली शुद्धता ही मानकर शुद्धव्यवहार कहा है। सम्यग्दृष्टि को मिश्रव्यवहार कहा है। वहाँ आत्मा और शरीर की मिलकर क्रिया होती है - ऐसा 'मिश्र' का अर्थ नहीं है; किन्तु अपनी पर्याय में किंचित् शुद्धता और किंचित् अशुद्धता यह दोनों एकसाथ होने से मिश्र कहा है। आत्मा में सम्यग्दर्शन होते ही चौथे गुणस्थान से आंशिक शुद्धता प्रगटी है, वहाँ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक साधकदशा है - ऐसी परिणतिवाले जीव को 'मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य' कहा है। प्रश्न :- सम्यग्दृष्टि तो अपने शुद्धद्रव्य को जानता है, तो भी उसको 'शुद्ध-अशुद्ध-मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य' क्यों कहा? उत्तर :- सम्यग्दृष्टि की निश्चयदृष्टि में - प्रतीति में कहीं शुद्धाशुद्ध आत्मा नहीं है, उसकी दृष्टि में तो शुद्धात्मा ही है; परन्तु पर्याय में अभी उसको सम्यग्दर्शन-ज्ञान तथा स्वरूपाचरणचारित्रादि शुद्धांशों के साथ रागादिक अशुद्धांश भी हैं, अतः उसकी शुद्ध और अशुद्ध - ऐसी मिश्रभावरूप अवस्था है; उस मिश्रभाव के साथ अभेदता मानकर उस द्रव्य को भी वैसा 'मिश्रनिश्चयात्मक' कहा है। द्रव्यदृष्टि से देखने पर तो द्रव्य शुद्ध ही है, अशुद्धता उसमें है ही नहीं। (पृष्ठ : २९,३०) पर्याय में शुद्ध-अशुद्धपना आदि प्रकार हैं । जब ऐसा ज्ञायकस्वभाव उपास्य बनाया जावे तब पर्याय शुद्ध होती है और जब इस स्वभाव को भूलकर विकार में ही लीनता रहे, तब पर्याय अशुद्ध होती है। इस शुद्ध अथवा अशुद्ध पर्याय के साथ अभेदता से द्रव्य को भी शुद्ध, अशुद्ध अथवा मिश्र कहा गया है, क्योंकि उस-उस काल में वैसे भावरूप द्रव्य स्वयं परिणमा है, द्रव्य का ही वह परिणमन है, द्रव्य से भिन्न किसी अन्य का परिणमन नहीं है। देखो, साधकदशा में शुद्धता और अशुद्धता दोनों ही एक साथ एक पर्याय में हैं, तथापि दोनों की धारा भिन्न-भिन्न है, शुद्धता शुद्धद्रव्य के आश्रय से है और अशुद्धता पर के आश्रय से है - दोनों की जाति जुदी है। दोनों साथ होने पर भी जो अशुद्धता है, वह वर्तमान में प्रगट हुई शुद्धता का नाश नहीं कर देती - ऐसी मिश्रधारा साधक के होती है। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में केवली भगवान पूर्ण यथाख्यातचारित्र के बल से शुद्धात्मस्वरूप में ही रमणशील हैं। यद्यपि यथाख्यातचारित्र तो बारहवें गुणस्थान में ही पूर्ण था, परन्तु वहाँ केवलज्ञान नहीं था; अब केवलज्ञान और अनन्तसुख प्रगट होने से पूर्ण इष्टपद की प्राप्ति हुई। ___ साध्य था, वह सध गया और आवरण का अत्यन्त अभाव हो गया; इसलिये शुद्धपरिणति को शुद्धव्यवहार कहा । तेरहवें गुणस्थान में योगारूढ़ दशा अर्थात् योगों का कम्पन है और चौदहवें में कम्पन नहीं है, परन्तु वहाँ अभी असिद्धत्व है अर्थात् संसारीपना है, अतः वहाँ तक व्यवहार कहा गया है। सिद्ध भगवान संसार से पार हैं, इसलिये वे व्यवहारातीत हैं। जहाँ तक असिद्धपना है, वहाँ तक व्यवहार है, सिद्ध जीव व्यवहार-विमुक्त हैं। वैसे तो दृष्टि अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि को भी व्यवहार-विमुक्त कहा है, परन्तु यहाँ तो परिणति अपेक्षा से बात है। जहाँ तक संसार है वहाँ तक 49

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