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ज्ञानधारा-कर्मधारा
रागरहित, दूसरा रागसहित । जो सम्यग्दर्शन है, वह स्वयं रागरहित भाव है; सम्यग्दर्शन हुआ, वह भी रागरहित है। चारित्र परिणति में अभी कुछ राग है; परन्तु ज्ञान का उपयोग जब स्व में लगे, तब बुद्धिपूर्वक राग का वेदन उस उपयोग में नहीं होता, वह उपयोग तो आनन्द के ही वेदन में मग्न है। अतएव उस वक्त अबुद्धिपूर्वक का ही राग है तथा जब उपयोग अन्य ज्ञेय में लगा हो, तब सविकल्पदशा में जो राग है, वह बुद्धिपूर्वक का है; लेकिन उस समय भी सम्यग्दर्शन स्वयं तो रागवाला हुआ नहीं है। भले ही कदाचित् उस वक्त ‘सराग सम्यक्त्व' नाम दिया जाये तो भी वहाँ दोनों का भिन्नपना समझ लेना कि सम्यग्दर्शन अलग परिणाम है और राग अलग परिणाम है; एक ही भूमिका में 'राग' व 'सम्यक्त्व' दोनों साथ होने से वहाँ 'सराग सम्यक्त्व' कहा है। कहीं राग सम्यक्त्व नहीं है और न सम्यक्त्व स्वयं सराग है। चौथे गुणस्थान का सम्यक्त्वपरिणाम है, वह भी वीतराग ही है और वीतरागभाव ही मोक्ष का साधन होता है, सरागभाव मोक्ष का साधन नहीं होता।
सम्यग्दृष्टि को एक साथ दोनों धारायें होने पर भी एक मोक्ष की कारण व दूसरी बंध की कारण है। इन दोनों को भिन्न-भिन्न रूप से पहचानना चाहिए । बंध-मोक्ष के कारण भिन्न-भिन्न हैं, उनको यदि एक दूसरे में मिला दें तो तत्त्वश्रद्धान में भूल हो जाये । सम्यग्दर्शन से सहित राग को भी जो मोक्ष का कारण मान लेता है, उसने तो बंध के कारण को ही मोक्ष का कारण मान लिया। ऐसे जीव को शुद्धात्मा का ध्यान या रागरहित निर्विकल्पदशा नहीं होती, अत: उसे मोक्षमार्ग नहीं होता। वह मोक्षमार्ग के बहाने से भ्रम से बंधमार्ग का ही सेवन कर रहा है। ___ अथवा जीव के परिणाम तीन प्रकार के हैं - शुद्ध, शुभ व अशुभ । इनमें मिथ्यादृष्टि को अशुभ की मुख्यता कही है, क्वचित् शुभ भी उसके होता है, लेकिन शुद्धपरिणति उसके नहीं होती। शुद्ध परिणाम
ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हृदयोद्गार का प्रारम्भ सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होता है। चतुर्थादि गुणस्थान में शुभ की मुख्यता कही है, परन्तु साथ में आंशिक शुद्ध परिणति तो सदैव रहती है । यद्यपि शुद्ध-उपयोग कभी-कभी होता है, परन्तु शुद्धपरिणति तो सदैव रहती है। सातवें गुणस्थान से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थानों में अकेला शुद्धोपयोग ही रहता है। परिणति में जितनी शुद्धता है, उतना धर्म है, उतना ही मोक्षमार्ग है। जीव जब अन्तर्मुख होकर अपूर्व धर्म का प्रारम्भ करता है, साधकभाव की शुरुआत करता है, तब उसे निर्विकल्प शुद्धोपयोग होता है - ऐसे निर्विकल्प स्वानुभव के द्वारा ही मोक्षमार्ग के दरवाजे खुलते हैं। ___ अहो, यह तो अत्यन्त प्रयोजनभूत, स्वानुभव की उत्तम बात है। स्वानुभव की ऐसी सरस वार्ता महाभाग्य से ही सुनने को मिलती है - अहो ! ऐसी अनुभवदशा की तो बात ही क्या !! (पृष्ठ : १२१-१२३) *परमार्थवचनिका प्रवचन से
स्वानुभव से आत्मस्वरूप को जाना है, इसीकारण धर्मीजीव पर की क्रिया को अथवा पर के स्वरूप को अपना नहीं मानता; इनसे भिन्न ही अपने ज्ञानस्वरूप को जानता है और ऐसे निजस्वरूप के ध्यानविचाररूप क्रिया में वर्तता है - यही उसका मिश्रव्यवहार है।
प्रश्न :- इसको मिश्रव्यवहार क्यों कहा?
उत्तर :- चूँकि साधक को अभी पूर्ण शुद्धता हुई नहीं है, उसकी पर्याय में कुछ शुद्धता और कुछ अशुद्धता - दोनों साथ-साथ वर्तती हैं, इसलिये उसको मिश्रव्यवहार कहा।
प्रश्न :- मिश्रव्यवहार तो चौथे से बारहवें गुणस्थान पर्यन्त कहा है; वहाँ बारहवें गुणस्थान में तो किंचित् भी रागादि अशुद्धता नहीं है; फिर वहाँ मिश्रपना कैसे कहा?
उत्तर :- राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्धता वहाँ नहीं रही - यह बात
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