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ज्ञानधारा-कर्मधारा है। अपने शुद्ध आत्मस्वभाव के अलावा अन्य किसी के स्वामित्वभाव से वह कभी नहीं परिणमता।
धर्मी को शुभभाव के समय भी सम्यक्त्व होता है - ऐसा कहा, इससे ऐसा नहीं समझ लेना कि शुभभाव करते-करते सम्यक्त्व हो जायेगा। यदि उस शुभभाव को स्वभाव की चीज मानकर उसका स्वामित्व कर अथवा उस शुभभाव को सम्यक्त्व का कारण माने तो उस जीव को शुभभाव के साथ सम्यक्त्व नहीं रहता, अपितु शुभ के साथ उसे मिथ्यात्व होता है। शुभ के समय जिसे शुभ से रहित ऐसे शुद्धात्मा की श्रद्धा वर्तती है, वही सम्यग्दृष्टि है।
सम्यग्दर्शन होने के बाद यदि शुभाशुभपरिणाम हो ही नहीं, तब तो तुरन्त ही वीतरागता व केवलज्ञान हो जाये, परन्तु ऐसा सबको नहीं होता। सम्यग्दर्शन के बाद भी जबतक अपने स्वरूप में पूर्ण लीनता न हो, तबतक चारित्रदशा की कमी के कारण धर्मी के शुभ-अशुभभावरूप परिणमन होता है; धर्मी उसको अपना स्वभाव नहीं समझता एवं कर्म ने कराया - ऐसा भी नहीं मानता; अपने गुण का परिणमन इतना कम है, अतएव वह अपनी ही परिणति का अपराध है - ऐसा वह समझता है। इसप्रकार सम्यक् प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन उसको वर्तता है। इसतरह सम्यग्दृष्टि की सविकल्पदशा दिखायी और उस सविकल्प-दशा में भी सम्यक्त्व रहता है, यह समझाया।
(पृष्ठ : ४२-४९) साधक को निर्विकल्प अनुभव में मति-श्रुतज्ञान कार्य करते हैं। मतिश्रुतज्ञान क्षयोपशमभावरूप है, इसलिए वह एक वक्त में एक ज्ञेय को ही जानने में प्रवर्तता है या तो स्व को जानने में उपयोग हो या पर को जानने में उपयोग हो। केवलज्ञान में तो स्व-पर सभी को एकसाथ जानने का पूरा सामर्थ्य प्रकट हो गया है, परन्तु साधक जीव के ज्ञान में अभी ऐसा सामर्थ्य खिला नहीं; इसलिए इसका जब स्व को जानने में उपयोग हो,
ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हृदयोद्गार तब पर को जानने में उपयोग नहीं होता और जब पर को जानने में उपयोग हो, तब स्व को जानने में उपयोग नहीं होता । स्व को जानने में उपयोग न हो, इससे वहाँ अज्ञान नहीं हो जाता; क्योंकि स्वसंवेदन के समय जो ज्ञान हुआ, वह लब्धरूप से तो वर्त ही रहा है।
क्षायोपशमिक ज्ञान की शक्ति ही इतनी मन्द है कि एक समय में एक तरफ ही इसकी प्रवृत्ति होती है; अतएव वह या तो स्व को जानने में प्रवर्ते या पर को जानने में प्रवर्ते। अपने में तो ज्ञान के साथ आनन्द, प्रतीति आदि सभी गुणों का जो निर्मल परिणमन अभेद वर्तता है, उसको (अर्थात् अखण्ड आत्मा को) तन्मय होकर जानता है। स्व को जानते समय आनन्दधारा में उपयोग तन्मय हुआ है, इसलिए उस निर्विकल्पदशा में विशिष्ट आनन्द का वेदन होता है।
यह बात केवलज्ञान के समय की नहीं, अपितु गृहस्थी में रहते हुए चौथे-पाँचवें गुणस्थानवाले जीव की बात है। सातवें गुणस्थान से तो निर्विकल्प स्व-उपयोग ही रहता है; छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि को अन्तर्मुहूर्त में नियम से निर्विकल्प उपयोग होता है। चौथे-पाँचवें गुणस्थान में स्व-उपयोग कभी-कभी होता है। पर तरफ के उपयोग के समय में भी वहाँ स्व का ज्ञान लब्धरूप से रहता है; अतएव पहले स्वसंवेदन से आत्मस्वरूप की जो प्रतीति व ज्ञान हुआ है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक ही ज्ञेय' अर्थात् ‘स्वज्ञेय' अथवा 'परज्ञेय' - इन दोनों में एक ऐसा अर्थ समझना । वैसे तो मतिज्ञान के विषय में बहु-बहुविध आदि अनेकप्रकार लिये हैं। एक साथ अनेक मनुष्यों की एवं पशु-पक्षी की आवाज सुनें और उनमें प्रत्येक की आवाज को भिन्न-भिन्न सुनें - ऐसी ताकत गणधरदेव की होती है, फिर भी उन्हें भी स्व एवं पर - दोनों में एकसाथ उपयोग नहीं होता; परन्तु स्व-पर की भिन्नता का जो भान
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