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ज्ञानधारा - कर्मधारा समझना। देखो, यह ज्ञान का प्रयोजन ! शुद्धात्मारूप प्रयोजन से रहित सब जाननपना थोथा है, मोक्षमार्ग में उसकी कोई गिनती नहीं ।
और भी ऐसा कहा है कि सम्यक्त्वपने की अपेक्षा से केवलज्ञान व मति श्रुतज्ञान की जाति एक है; मति श्रुतज्ञान को केवलज्ञान का अंश कहा है। सम्यग्दृष्टि को वह ज्ञान वृद्धिंगत होते-होते केवलज्ञान होता है । मिथ्याज्ञान पलट कर यथार्थ तत्त्वार्थ- श्रद्धानसहित जो सम्यग्ज्ञान हुआ, इसकी अचिन्त्य महिमा है, यह ज्ञान मोक्ष का साधक है।
सम्यग्दृष्टि का ऐसा मति-श्रुतज्ञान जब स्वानुभव में प्रवर्ते, तब तो निर्विकल्पता होती है और जब बाहर के शुभाशुभ कार्य में प्रवर्ते, तब सविकल्पता होती है । सविकल्पता हो या निर्विकल्पता हो - सम्यग्दर्शन तो दोनों समय एक-सा ही रहता है; परन्तु ऐसा नहीं है कि निर्विकल्पता के समय सम्यग्दर्शन विशेष निर्मल हो जाये और सविकल्पता के समय उसमें कुछ मलिनता आ जाये। सविकल्प दशा होने पर भी किसी को क्षायिक सम्यक्त्व हो और किसी को निर्विकल्पता होने पर भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो। अतएव सम्यक्त्व की निर्मलता या निश्चयव्यवहार का माप सविकल्पता के ऊपर निर्भर नहीं है। हाँ, इसमें इतना नियम अवश्य है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के काल में निर्विकल्प अनुभूति अवश्य होती है और मिथ्यादृष्टि को तो निर्विकल्प अनुभूति कभी नहीं होती, परन्तु सम्यग्दृष्टि को निर्विकल्प उपयोग सदैव रहा करे ऐसा सम्यक्त्व और निर्विकल्पता का परस्पर अविनाभावीपना भी नहीं है।
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यहाँ इस प्रश्न का समाधान चल रहा है कि शुभ-अशुभ में जब उपयोग वर्तता हो, तब सम्यक्त्व का अस्तित्व कैसे बना रहता है ? भाई श्री ! सम्यक्त्व है, सो उपयोग नहीं है, सम्यक्त्व की यह प्रतीति है। उपयोग जब शुभाशुभ में हो, तब भी शुद्धात्मा का अन्तरंग श्रद्धान तो धर्मी को वैसा का वैसा ही रहता है; स्व-पर का जो भेदविज्ञान हुआ
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ज्ञानधारा - कर्मधारा को पोषक गुरुदेव श्री के हृदयोद्गार
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है, वह तो उस वक्त भी वर्तता है। यह शुभ-अशुभ मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो शुद्ध चैतन्यस्वभावी ही हूँ - ऐसी निश्चित अन्तरंग श्रद्धा धर्मी को शुभ-अशुभ भाव के समय भी मिटती नहीं।
जैसे गुमाश्ता सेठ के कार्य में प्रवर्तता है, नफा-नुकसान होने पर हर्ष - विषाद भी करता है, फिर भी अन्तर में उसे भान है कि इस नफेनुकसान का स्वामी मैं नहीं । यदि वह सेठ की सम्पत्ति अपनी ही मान ले, तब तो वह चोर कहलायेगा । उसीप्रकार धर्मात्मा का उपयोग शुभअशुभ में भी जाता है, शुभ-अशुभ परिणमता है, तो भी अन्तर में उसी वक्त उसको श्रद्धान है कि 'ये कार्य मेरे नहीं, इनका स्वामी मैं नहीं' शुद्धोपयोग के समय जैसी प्रतीति थी, शुभाशुभ उपयोग के समय भी वैसी प्रतीति शुद्धात्मा को वर्तती है; अतएव शुभ-अशुभ के समय भी उसे सम्यक्त्व में बाधा नहीं आती। यदि परभावों को अपना माने या देहादि परद्रव्य की क्रिया को अपनी माने तो तत्त्वश्रद्धान में विपरीतपना हो जाने से मिथ्यात्व हो जाये ।
एक बात और है कि निर्विकल्पता के समय में निश्चयसम्यक्त्व और सविकल्पता के समय में व्यवहारसम्यक्त्व - ऐसा भी नहीं है। चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व को नष्ट करके निर्विकल्प स्वानुभूतिपूर्वक शुद्धात्मप्रतीतिरूप जो सम्यग्दर्शन प्रकटा है, वह निश्चयसम्यग्दर्शन है और यह निश्चयसम्यग्दर्शन, सविकल्प या निर्विकल्प दोनों दशा में एकरूप ही है। स्वानुभव के समय तो निर्विकल्पता होती है। सम्यग्दृष्टि को जब सम्यक्त्व की उत्पत्ति हुई, उस वक्त तो स्वानुभव एवं निर्विकल्पता होती है, परन्तु ऐसे निर्विकल्प - स्वानुभव में सदाकाल वह नहीं रह सकता । निर्विकल्पदशा ज्यादा काल नहीं टिकती; बाद में सविकल्पदशा में आने पर शुभ या अशुभ में उपयोग जाता है और शुद्धात्मप्रतीति तो उस वक्त भी चालू ही रहती है ऐसी सम्यक्त्वी महात्मा की स्थिति