Book Title: Gyandhara Karmadhara
Author(s): Jitendra V Rathi
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 44
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा है कि इसमें मेरा कुछ नहीं है, यह तो सब परकीय (सेठ का) है। उसीप्रकार धर्मात्मा जीव भी राग की भूमिका के अनुसार विषयकषाय, क्रोध-मान, व्यापार-धन्धा, रसोई आदि अशुभ प्रवृत्ति या पूजनभक्ति, दया-दान, यात्रा-स्वाध्याय, साधर्मीप्रेम आदि शुभप्रवृत्ति में उपयोग को लगाता है; परन्तु उपरोक्त गुमाश्ता की तरह वह समझता है कि ये देहादिक के कार्य या रागादिक भाव सचमुच में मेरे नहीं है, वह चीज मेरे स्वरूप की ही नहीं है। उन रागादि के समय आत्मा उनमें तद्रूप होकर परिणमा है अर्थात् आत्मा का ही वह परिणमन है; परन्तु शुद्धस्वभाव स्वयं उस रागरूप नहीं हो गया। ___ यदि ऐसा शुद्धात्मा का श्रद्धान न रखे और रागादि को या देहादि की क्रिया को सचमुच में अपना ही स्वरूप मान ले तो वह जीव मिथ्यादृष्टि है। जैसे गुमाश्ता यदि सेठ की वस्तु को सचमुच में अपनी ही समझ के अपने घर उठा ले जाये; तब वह प्रामाणिक नहीं, अपितु चोर कहलायेगा। वैसे परकीय ऐसी देहादि क्रिया को या रागादि परभावों को जो वास्तव में अपना मानकर उसे अपना ही स्वरूप समझ ले, वह जीव मिथ्यादृष्टि है। 'यह मेरा नहीं है, यह सेठ का हैं' - ऐसा गुमाश्ता को प्रतिसमय घोखना (रटना) नहीं पड़ता, प्रत्येक कार्य के समय सदैव उसको यह प्रतीति भीतर में रहा ही करती है; उसीप्रकार 'यह शरीर मेरा नहीं, यह राग मेरा नहीं, मैं शुद्धात्मा हूँ' - ऐसा धर्मी को हर समय घोखना नहीं पड़ता । हरेक क्षण - शुभाशुभ के समय में भी उसे समस्त परद्रव्यों व समस्त परभावों से भिन्न शुद्धात्मा की जो प्रतीति हुई है, वह बनी ही रहती है। देखो, यह सम्यग्दृष्टि की अन्तरंग दशा ! सम्यक्त्व की कितनी अच्छी चर्चा की है। अहा, धन्य है उन साधर्मियों को जो स्वानुभव की ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हृदयोद्गार ऐसी चर्चा करते हैं ! स्व-पर का यथार्थ भेद-ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, भूतार्थ का आश्रय, शुद्धनय, शुद्धात्मश्रद्धान या निश्चय-सम्यक्त्व सभी में एक ही भाव है। ऐसी दशा प्रकट किये बिना जीव भले जैनधर्म के ही देवगुरु-शास्त्र को मानता हो और अन्य कुदेवादि को न मानता हो तो भी उसे सम्यक्त्वी नहीं कहा जाता, धर्मी नहीं कहा जाता। स्व-पर के यथार्थ भेदज्ञानपूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान करके स्वानुभव सहित शुद्धात्मश्रद्धान करना, वही सम्यक्त्व है, वही मोक्षमार्ग का पहला रत्न है और वही पहला धर्म है। प्रसन्नता के साथ आत्मा की प्रीतिपूर्वक ऐसे सम्यक्त्वादि की बात जो उत्साह से सुनें, वे भी बहुत भाग्यशाली हैं, इसमें उत्कृष्ट जाति का पुण्य बँध जाता है और यह बात समझकर जो भीतर में परिणमन करें, वे अपूर्व कल्याण को पाते हैं और अवश्यमेव अल्पकाल में मोक्ष भी पाते हैं। ऐसे अध्यात्म के रसीले जीव सदैव विरले ही होते हैं। सम्यग्दृष्टि के स्वरूप की पहिचान भी संसार को दुर्लभ है। सम्यग्दृष्टि ने शुद्धात्मा को प्रतीति में लेकर अपना प्रयोजन साध लिया है, मतिश्रुतज्ञान को आत्मज्ञान के द्वारा सम्यक् बना लिया है; अब जो कुछ वह जानता है, यह सब सम्यग्ज्ञान ही है। उसका ज्ञान पदार्थों को विपरीत नहीं साधता। अपना मोक्षमार्ग साधने का जो प्रयोजन है, वह अन्यथा नहीं होता। अहो, आत्मा-संबंधी ज्ञान में जहाँ भूल नहीं, बाहर के जाननपने में यदि कोई भूल हो जाये तो भी वह मोक्षमार्ग के साधने में रुकावट नहीं करती। आत्मा को जान लिया, तब ज्ञान सम्यक् हो गया। मिथ्यादृष्टि को बाहर का कुछ जाननपना भले हो, परन्तु उसका वह बाह्यज्ञान मोक्षमार्गरूप निज-प्रयोजन को नहीं साधता, इसलिए उसको मिथ्याज्ञान ही कहते हैं। इसतरह ज्ञान में 'सम्यक्' और 'मिथ्या' - ऐसे निज-प्रयोजन को साधने और न साधने की अपेक्षा से दो प्रकार 44

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