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ज्ञानधारा-कर्मधारा
मोह क्षय हुआ है, तब कर्मधारा कहाँ रही ? अर्थात् बारहवें गुणस्थान में वीतरागदशा हो गयी है, अब वहाँ अधूरापन कैसे रहा ?
समाधान :- बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणरूप आवरण अभी भी विद्यमान है, इसकारण वह जीव अन्तरात्मा है। अज्ञानभाव बारहवें गुणस्थान तक होने से वहाँ अन्तरात्मपना भी है और मिश्रभाव भी है। कोई भी जीव प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना परमात्मा नहीं कहा जाता ।
बारहवें गुणस्थान में कषायभाव का नाश होने पर भी ज्ञान की पूर्णता नहीं हुई है; अतः अज्ञानपना अर्थात् मिश्रदशा कही जाती है। प्रश्न :- वहाँ अज्ञान कैसा है ?
समाधान :- (१) केवलज्ञान के बिना सकल द्रव्यों की सकल पर्याय भासित नहीं होती, यही अज्ञान है। (२) निज का प्रत्यक्षज्ञान भी नहीं है; अतः अज्ञान ही है अर्थात् अपने गुण-पर्याय प्रत्यक्ष भासित नहीं होते, इसलिये अज्ञान कहा जाता है (३) और सर्व द्रव्य प्रत्यक्ष नहीं हैं, इसकारण भी अज्ञान है।
यहाँ विपरीत ज्ञान को अज्ञान नहीं कहा, अपितु सकल प्रत्यक्षज्ञान नहीं है - इस अपेक्षा अज्ञान कहा है।
साधक अवस्था में थोड़ी निर्मलता और थोड़ी मलिनता रहती ही हैं। यदि ऐसा न हो तो सम्यग्दर्शन होते ही केवलज्ञान हो जाये; किन्तु पर्याय का क्रम ऐसा ही है, अतः सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक तो मिश्रदशा रहती ही है ।
इसप्रकार गुरुदेव श्री द्वारा मिश्रधर्म पर हुये प्रवचन यहाँ पूर्ण हुये ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सारांश यह है कि साधक जीव के जीवन में स्वरूप-श्रद्धान तो पूर्णतः सम्यक् है, तथापि उनके जीवन में शुद्धरूप ज्ञानधारा और शुभाशुभरूप कर्मधारा ये दोनों धारायें एक साथ एक
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मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन
समय में विद्यमान हैं।
इन दो धाराओं के एक साथ रहने में किसीप्रकार की कोई बाधा नहीं है; किन्तु जितना अंश ज्ञानरूप है वह संवर-निर्जरा का कारण है और जितना अंश रागरूप है, वह बंध का कारण है, यह विशेष जानना ।
अत: एक समय की शुद्ध ज्ञानपर्याय का आश्रय लेकर द्रव्यदृष्टिपूर्वक अपने ज्ञानानन्दस्वरूप निजात्मा के प्राप्ति के लिये उसका श्रद्धान-ज्ञान और उसी में लीनता करना चाहिये; क्योंकि इसी का नाम सम्यग्दर्शनसिम्यग्ज्ञान और सम्यवासयिका री ऐश और मोक्ष है।
इवानीचतयाकरण को में कलितकर नवालकरराजासियों केहेजीस में द्रवती नोकर साहित है जाने भावकर्मनी के कमाल की हिसर अवसर हो, निकीत्याशुद्ध है ॥ आत्मा का अन्तरंग सम्पूर्ण शुद्ध है। अन्तरंग अर्थात् त्रिकाल रहनेवाले अनन्त गुण तो सदा शुद्ध ही हैं।
जिसप्रकार राजहंस सरोवर के कमलपुष्पों में केलि करता है; उसी प्रकार यह चैतन्यतत्त्व ज्ञानसरोवर के शान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी कमलों में सदैव केलि करनेवाला है। तीनों काल आनन्दादि अनुपम गुणोंवाला चैतन्यचमत्कार की मूर्ति है ।
आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसे स्वभाव की दृष्टि कर और पर्याय में विकार होने पर भी उसकी दृष्टि छोड़। त्रिकाली एकरूप स्वभाव में केलि करनेवाले ऐसे आत्मा को मोह का अभाव होने से यह समस्त परद्रव्य व परभाव को ग्रहण नहीं करता अर्थात् वह स्वभाव से अविकृत ही रहता है। विकारी भावों का ग्रहण नहीं करता । त्रिकाली स्वभाव में तो विकार का ग्रहण है ही नहीं और उस स्वभाव का आश्रय करनेवाली पर्याय में भी विकार का संवर हो जाता है। - आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी