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ज्ञानधारा-कर्मधारा
मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन
यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे?
समाधान :- जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसा ही है' - ऐसा जानना तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ऐसा है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है' - ऐसा जानना । इसप्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है तथा दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर “ऐसा भी है और ऐसा भी है" - इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तने से तो दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है।
शक्ति-अपेक्षा सभी जीव परमात्मा ही हैं। निगोद की पर्याय में परमात्मदशा प्रकट नहीं है, वहाँ पर्याय बहुत हीन है। जैसे तिल में तेल शक्तिरूप से व्याप्त है, प्रकटरूप नहीं। तेल प्रकट करे तो दिखाई देता है। कोई तिल को तेल मानकर उसमें पूड़ी तलना चाहे तो आटा और तिल दोनों ही बिगड़ते हैं।
उसीप्रकार आत्मा में परमात्मपना शक्तिरूप व्याप्त है, वैसा न मानकर कोई पर्याय में ही परमात्मपना माने तो जीव चार गतियों में ही परिभ्रमण करता है। आत्मा की प्रतीति और लीनतापूर्वक जबतक परमात्मदशा प्रकट न हो, तबतक पर्याय में परमात्मपना नहीं मानना चाहिए।
शक्तिरूप से 'मैं परमात्मा हूँ - ऐसा न माने तो पर्याय में भी निर्मल परमात्मपना प्रकट नहीं हो सकता, इसलिए यह आत्मा शक्तिअपेक्षा केवलज्ञानरूप है और पर्याय अपेक्षा पामर है - ऐसा जानना चाहिए। __आत्मवस्तु की यथार्थ श्रद्धापूर्वक उसमें लीनता करना उपादेय है; किन्तु यह उपादेय है' - ऐसा विकल्प उपादेय नहीं है, अतः जितने अंश
में राग व अल्पज्ञता टलती जाती है, उसे हेय कहा । हेय का ज्ञान व्यवहारनय का विषय है और उपादेय का ज्ञान निश्चयनय का विषय है।
जिसे विश्वास हुआ कि 'मैं शुद्ध चिदानन्द आत्मा हूँ', उसकी प्रतीति को फेरफार करने अथवा बदलने में अब कोई समर्थ नहीं है। उसे ही क्षायिक समकिती कहते हैं।
वह क्षायिक सम्यक्त्व श्रुतकेवली, केवली भगवान अथवा तीर्थङ्कर के पादमूल में ही होता है। धर्मी जीव बाह्य संसार में मग्न होने पर भी उन्हें चैतन्य-ज्योति का भरोसा है, उन्हें डिगाने में कोई समर्थ नहीं है। वह स्वयं श्रद्धा से विचलित नहीं होता।
मेरी आत्मवस्तु अखण्ड आनन्दकन्द है - ऐसी प्रतीति को ही क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। वहाँ उपादानस्वरूप पर्याय में निर्मलता प्रकट हुई और निमित्तरूप कर्म का अभाव रहा।
प्रश्न :- यदि कोई आत्मा की पूर्ण प्रतीतिपूर्वक यह निर्णय करे कि मुझे पूर्णता ही प्राप्त करना है तो उस जीव के सम्यक्त्व पूर्ण प्रकट है या अपूर्ण ? तथा यदि सम्यक्भाव पूर्ण प्रकट है - ऐसा कोई कहे तो उसे सिद्ध हो जाना चाहिए; क्योंकि एक गुण के पूर्ण सम्यक् होने से अन्य समस्त गुण भी पूर्ण सम्यक् हो जायें और सिद्ध दशा प्रकटे ?
प्रश्न का ही स्पष्टिकरण :- आत्मा के सभी गुण पूर्ण प्रकट नहीं हैं, अत: शिष्य का प्रश्न है कि आत्मा में एक विभुत्वशक्ति है, जिसकारण एक गुण सम्पूर्ण आत्मा में व्याप्त होकर रह सकता है, अत: एक सम्यक्त्व गुण के पूर्ण निर्मल होने से सभी गुण पूर्ण निर्मल हो जाना चाहिए।
समाधान :- आत्मा आनन्द का पिण्ड है - ऐसी जिसे क्षायिक प्रतीति हुई, उसे सम्यक्गुण (सम्यक्त्व) पूर्ण हो गया, अतः सभी गुण पूर्ण हो जाने चाहिए; क्योंकि सम्यक्गुण सम्पूर्ण आत्मा में व्यापक है, इसलिए श्रद्धागुण की दशा पूर्ण निर्मल हो जाने से सभी गुण पूर्ण निर्मल
१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, सातवाँ अधिकार - पृष्ठ : २५१
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