Book Title: Gyandhara Karmadhara
Author(s): Jitendra V Rathi
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 37
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा वर्तते हैं, उन्हें व्यवहारनय जानता है। यदि उन्हें व्यवहारनय यथार्थ न जाने तो व्यवहार को नहीं माना - ऐसा कहा जाये। 'मैं ज्ञायक हूँ' ऐसी स्वरूप-श्रद्धा होनी चाहिए। वहाँ अनेकप्रकार के राग और ज्ञान में तारतम्यता होती है, वह व्यवहार है। पर्याय में जो कमजोरी है, राग है, वह व्यवहार है; तथापि वह आदरणीय नहीं है। ग्यारहवीं गाथा में व्यवहार को अभूतार्थ कहा था, इसलिए बारहवीं गाथा में यह पुनः स्पष्ट किया कि व्यवहार अभूतार्थ होने पर भी जानने योग्य ही है । इसप्रकार पर्याय का ज्ञान करके स्वभाव में संसार नहीं है - ऐसी दृष्टिपूर्वक स्वरूप-लीनता करनी चाहिए। पर्याय में पुरुषार्थ की कमजोरीवश अल्पज्ञता, अल्पदर्शन, अल्पशक्ति-आनन्द है - उसका यथार्थ ज्ञान करना, वह व्यवहार है। मिश्रधारा में दो प्रकार वर्तते हैं। धर्मी जीव जानता है कि स्वस्वरूप की जितनी श्रद्धा, ज्ञान और एकाग्रता हुई, वह निश्चय है और जितना राग वर्तता है अथवा ज्ञान-दर्शन की हीनता अर्थात् ज्ञान-दर्शन का अनन्तवाँ भाग वर्तता है, वह व्यवहार है। अज्ञानी मानता है कि बाह्य परपदार्थों को छोड़ना व्यवहार है; किन्तु ऐसा माननेवाला मूढ़ है। आत्मा बाह्य पर पदार्थों को न छोड़ सकता है और न ग्रहण कर सकता है। आत्मा त्रिकाल परपदार्थों से भिन्न है। राग-द्वेष आत्मा का स्वरूप ही नहीं है - ऐसी श्रद्धापूर्वक रागादि परिणामों का ज्ञान होता है। _पर्याय में चारित्र न होने पर भी चारित्र मान लेना भूल है। स्वभाव के अवलम्बन से शान्ति बढ़े और रागादि घटे, तब चारित्र होता है। मात्र अट्ठाईस मूलगुण के विकल्प को चारित्र नहीं कहते। यथार्थ चारित्र भी आत्मा के भानवाले को ही होता है। ज्ञानी को जड़ पदार्थ की पर्याय ऐसी ही हो - ऐसा आग्रह नहीं है मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन और राग का भी आग्रह नहीं है; क्योंकि राग किसी भी प्रकार का हो, उसे ज्ञान जानता ही है। ____ मैं शुद्ध-चैतन्य पूर्णानन्द हूँ, असंख्यातप्रदेशी हूँ। जीव शरीरप्रमाण क्षेत्रवाला परिमित है, तथापि जीव का स्वभाव अपरिमित है - ऐसे स्वभाव का भान करके जिसने स्वरूप का यथार्थ निर्णय किया है, उसे भी रागादि परिणाम हैं। केवलज्ञानरूप पूर्णदशा नहीं है - ऐसा जानना । जो राग उत्पन्न होता है, वह भी भूमिकानुसार अपने स्वकाल में ही आता है। वे परिणाम अपने ही काल-क्रम में होते हैं, उन्हें जानना व्यवहार है और अखण्ड स्वभाव को जानना निश्चय है; किन्तु दोनों ही में व्यवहार आदरणीय नहीं, अपितु निश्चय आदरणीय है - ऐसा जानना । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार की टीका में स्पष्ट किया है कि अपने स्वकाल में जाना हुआ व्यवहारनय प्रयोजनवान है। वहाँ चौथे गुणस्थान वाले को दर्शन (श्रद्धा) का क्षयोपशमभाव वर्तता हो तो उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जानना और क्षायिकभाव वर्तता हो तो क्षायिक सम्यक्त्व है, इतना विशेष जानना। आत्मा का भान होने पर जिस दशा तक राग और अल्पज्ञता विद्यमान है, उस दशा को मिश्रदशा कहते हैं। जो पर्याय जैसी है, वैसी जानना चाहिए। पर्याय अल्प व्यक्त हो तो उसे अधिक व्यक्त नहीं मानना और अधिक व्यक्तता न हो तो खेद करने की भी जरूरत नहीं। श्री मोक्षमार्गप्रकाशक में कहा है कि “व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को, उनके भावों को व कारण-कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है, सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है; इसलिये उसका त्याग करना तथा निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है; सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है; इसलिये उसका श्रद्धान करना।" 37

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