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ज्ञानधारा-कर्मधारा
है और अनुभव करता है, वह अन्तरात्मा है - ऐसे ज्ञानी जीव को आत्मा के आश्रय से आंशिक शुद्ध निर्मल पर्याय प्रगट होती है।
अविरत सम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान से क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक के समस्त जीवों के अन्तरात्मपना है। ___३) जिन्होंने समस्त रागादि परभावों का सर्वथा अभाव कर पूर्ण शुद्धदशा को प्रकट किया है - ऐसे सयोगकेवली व अयोगकेवली गुणस्थानवी जीव परमात्मा हैं।
इनसे भिन्न जिन जीवों के किंचित् रागादि का अभाव होने से थोड़ा धर्म प्रगट हुआ है और शेष रागादि विद्यमान होने से जितना धर्म प्रगट नहीं हुआ है, ऐसी जीव की दशा को मिश्रदशा कहते हैं।
इस दशा में जीव को 'मैं स्वयं अखण्ड, ज्ञानानन्दस्वभावी, आनन्दकन्द आत्मा हूँ' - ऐसी दृढ़ श्रद्धा तो हुई है; परन्तु आंशिक रागादि अभी भी शेष हैं, कषायभाव सर्वथा मिटा नहीं है; अतः उतने अंश में उसे कर्मधारा विद्यमान है।
समयसार कलश ११० में आचार्य अमृतचन्द्र इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि - " वस्तुस्वरूप की दृष्टि से आत्मा त्रिकाल परमात्मा ही है; परन्तु पर्याय में अभी परमात्मपना प्रकट नहीं है।"
जिसप्रकार मकान की छत पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ सहायक होती हैं, उसीप्रकार आत्मा की पूर्ण दशा तक पहुँचने के लिए चौदह गुणस्थानरूपी सीढ़ियाँ माध्यम हैं; उनमें पहले से तीसरे गुणस्थानवर्ती समस्त जीव बहिरात्मा हैं, चौथे से बारहवें गुणस्थानवर्ती समस्त जीव अन्तरात्मा हैं और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत व सिद्ध भगवान परमात्मा हैं।
चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप तीन कषाय चौकड़ी, पाँचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण
मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेव श्री के प्रवचन
और संज्वलनरूप दो कषाय चौकड़ी तथा छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के एक संज्वलन कषाय चौकड़ी ही शेष है। इसके पश्चात् दसवें गुणस्थान में अव्यक्त राग (सूक्ष्म लोभ) विद्यमान है, जो पूर्ण दशा की प्राप्ति होने तक क्रमशः नष्ट होता जाता है।
यहाँ साधकजीव की बात चल रही है। वहाँ जितने अंश में रागद्वेष हैं, उतने अंश में बाधक-भाव है तथा जितने अंश में शुद्ध चिदानन्द आत्मा की प्रतीति हुई है, उतना आनन्द है।
यद्यपि श्रद्धा, सुख-आनन्द गुणों को ही स्वीकार करती है; तथापि जितना राग अन्तरंग में विद्यमान है, वह कर्म के कारण नहीं; अपितु वर्तमान अवस्था में मलिन पर्याय का सर्वथा अभाव नहीं होने से तथा पुरुषार्थ की कमजोरीवश विद्यमान है। दसवें गुणस्थान तक कषायभाव अर्थात् सूक्ष्म लोभ विद्यमान है; अतः एकमात्र त्रिकाली स्वभाव की दृढ़ श्रद्धा में ही यथार्थ सुख है। ___चौथे-पाँचवे गुणस्थान में पूजा-प्रभावना आदि का विकल्प तथा आर्तध्यान-रौद्रध्यान होता है। छठवें गुणस्थान में भी आर्तध्यान होता है; परन्तु यहाँ उक्त सभी की गौणता और द्रव्यस्वभाव की मुख्यता है, इसकारण श्रद्धाभाव मुख्य और कषायभाव गौण अर्थात् व्यवहार होने से अभूतार्थ है। __सम्यग्दर्शन होते ही सभी पर्यायें पूर्णतः निर्मल हो गईं - ऐसा नहीं; अपितु जितना राग अन्तर में विद्यमान है, उतना दोष भी विद्यमान है। _स्व-आत्मा का श्रद्धान-ज्ञान करना, यह प्रत्येक जीव का मुख्य कार्य है, उससमय अन्तर में विद्यमान अल्प राग गौण है। अभी अखण्ड स्वभाव की प्राप्ति नहीं हुई है, परमात्मदशा प्रकट नहीं हुई है; बल्कि थोड़ा धर्म प्रगट है और थोड़ा अप्रकट है; इसलिये चौथे से बारहवें गुणस्थान तक पाये जानेवाले समस्त जीवों के भाव को मिश्रधर्म कहा है।
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