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मिश्नधर्म अधिकार
(पण्डित दीपचंदजी कासलीवाल रचित अनुभवप्रकाश ग्रंथ से ) अब, यहाँ मिश्रधर्म अधिकार प्रारंभ करते हैं -
वह मिश्रधर्म अन्तरात्मा को है। ऐसा काहे से ? कि स्वरूपश्रद्धान सम्यक् है और जितना कषाय-अंश है, उतनी राग-द्वेष धारा है । आत्मश्रद्धाभाव में आनन्द होता है । कषायभाव सर्वथा नहीं गए, मुख्य श्रद्धाभाव है और गौण परभाव है; एक अखण्ड चेतनाभाव सर्वथा नहीं हुआ है, इसलिए मिश्रभाव है । बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव - एकदेश अज्ञानचेतना है और कर्मचेतना भी है; इसलिए मिश्रधारा है । उपयोग में स्वरूप की प्रतीति हुई; किन्तु शुभाशुभ कर्म की धारा बहती है, उससे रंजकभाव कर्मधारा में है; परन्तु स्वरूप श्रद्धान मोक्ष का कारण है, भवबाधा मिटाने में समर्थ है। कर्मधारा की ऐसी कोई दुर्निवार गाँठ है कि यद्यपि प्रतीति में स्वरूप का यथार्थ निर्णय किया है, तथापि सर्वथा (स्वरूप) न्यारा नहीं हुआ है, मिश्ररूप है ।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि - सम्यक्गुण क्षायिकसम्यग्दृष्टि को सर्वथा हुआ है या नहीं हुआ? उसका समाधान कहो ।
यदि ऐसा कहोगे कि सर्वथा हुआ है तो (उसे) सिद्ध कहो । काहे से? कि एक गुण सर्वथा विमल होने से सर्व (गुण) शुद्ध होते हैं । सम्यगुण सर्व गुणों में फैला है; (इससे) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन सर्वगुण सम्यक् हुए। (परन्तु ) सर्वथा सम्यग्ज्ञान नहीं है, एकदेश सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा सम्यग्ज्ञान हो तो सर्वथा सम्यक्गुण शुद्ध हो, इसलिए सर्वथा नहीं कहा जाता।
(तथा) यदि किंचित् सम्यक्गुण शुद्ध कहें तो सम्यक्त्वगुण का
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मिश्रधर्म अधिकार
घातक जो मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी कर्म था, वह तो नहीं रहा; जिस गुण का आवरण जाए, वह गुण (सर्वथा) शुद्ध होता है; इसलिए (सम्यक्गुण) किंचित् (शुद्ध) भी नहीं बनता ।
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तो किसप्रकार है? उसका समाधान किया जाता है वह आवरण तो गया, तथापि सर्वगुण सर्वथा सम्यक् नहीं हुए हैं। आवरण जाने से सर्वगुण सर्वथा सम्यक् नहीं हुए, इसलिए परम सम्यक् नहीं है । सर्वगुण साक्षात् सर्वथा शुद्ध सम्यक् हों, तब 'परम सम्यक्' ऐसा नाम होता है ।
"विवक्षाप्रमाण से कथन प्रमाण है ।" उस दर्शन प्रति की पौद्गलिक स्थिति जब नाश हुई, तभी इस जीव का जो सम्यक्त्वगुण मिथ्यात्वरूप परिणमा था, वह सम्यक्त्व गुण सम्पूर्ण स्वभावरूप होकर परिणमा - प्रकट हुआ। चेतन-अचेतन की भिन्न प्रतीत ह सम्यक्त्वगुण निजजाति-स्वरूप होकर परिणमा है।
उसका लक्षण ज्ञानगुण अनन्तशक्ति द्वारा विकाररूप हो रहा था, उस गुण की अनन्तशक्ति में कुछ शक्ति प्रकट हुई । उसका सामान्यतः नाम मति श्रुत हुआ कहते हैं अथवा निश्चयश्रुतज्ञान पर्याय कहते हैं, जघन्यज्ञान कहते हैं ।
ज्ञान की शेष सर्व शक्ति रहीं, वह अज्ञान - विकाररूप होती हैं; उस विकारशक्ति को कर्मधारारूप कहते हैं ।
उसीप्रकार जीव की कुछ शक्ति चारित्ररूप और शेष कुछ विकाररूप है । इसीप्रकार भोगगुण का (समझना) । सर्वगुण जितने निरावरण, उतने शुद्ध; शेष विकार - यह सब मिश्रभाव हुआ । प्रतीतिरूप ज्ञान में सर्व शुद्ध श्रद्धाभाव ('द्रव्य सर्व शुद्ध है' - ऐसा श्रद्धाभाव) हुआ है; परन्तु ज्ञान को तथा अन्य गुणों को आवरण लगा है, इसलिए मिश्रभाव है; स्वसंवेदन है, परन्तु सर्व प्रत्यक्ष नहीं है ।
सर्व कर्म-अंश जाने पर शुद्ध है, अघाति रहने पर (भी) शुद्ध है । घातिया के नाश से ही सकल परमात्मा है। प्रत्यक्ष ज्ञान तो हुआ है ।