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ज्ञानधारा - कर्मधारा
उत्तर :- यह बात बाद में है। यहाँ जो कार्य हुआ, उसे अर्थात् द्रव्य के कार्य को पर की अपेक्षा नहीं है। बस ! इतना ही सिद्ध करना चाहते हैं। वास्तव में जो कार्य हुआ, उसे द्रव्य की भी अपेक्षा नहीं है। वह कार्य अपनी स्वयं की योग्यता से हुआ है। यही जिनदेव का मार्ग है ।
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द्रव्य तो पूर्णानन्द का नाथ, शुद्ध चैतन्यघन, अनन्त रत्नाकर प्रभु है। 'और ऐसा द्रव्य मैं स्वयं हूँ" - यह स्वीकार पर्याय में आता है। द्रव्य का स्वीकार द्रव्य में नहीं आता। अहाहा ! प्रभु का तो यही मार्ग है। पहले कहा था न कि पर्याय में तुम्हारा द्रव्य है।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि - कारण परमात्मा है तो कारण का कार्य होना चाहिए; क्योंकि कारण परमात्मा तो अनादि से है। कारण परमात्मा, द्रव्यस्वभाव, त्रिकाली ज्ञायकभाव, त्रिकाली ध्रुव - सब एक ही है; अत: कारण जीव हो तो कार्य होगा- ऐसा है क्या ?
उसका समाधान यह है कि - कारण आत्मा और कारण परमात्मा कौन है ? जिसकी प्रतीति में कारण जीव आया, उसे द्रव्यपने का भाव हुआ और जिसे प्रतीति ही नहीं हुई, उसे 'द्रव्य है' यह भाव कैसे होग ?
यह मार्ग तो जगत से अत्यन्त भिन्न हैं। लोग कहते हैं कि यह सोनगढ़ का एकान्त है, व्यवहार का लोप है; किन्तु यही एकान्त सच्चा एकान्त है, सम्यक् एकान्त है ।
जिसने द्रव्य स्वभाव का आश्रय और लक्ष्य किया है, उसे पर के लक्ष्य से कार्य होता है, यह बात जँचती ही नहीं है। पराधीनता की बात उसे सुहाती ही नहीं है ।
हे प्रभो ! आत्मवस्तु तो अनंत शक्तियों के संग्रहस्वरूप भगवान है। उत्पाद - व्यय अनित्य है । अनित्य में नित्य की प्रतीति होती है, नित्य में नित्य की प्रतीति नहीं होती ।
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बालबोधिनी टीका पर गुरुदेव श्री के प्रवचन
जिसे ' मैं कारण परमात्मा हूँ' - ऐसी प्रतीति है, उसे सम्यग्दर्शनरूप कार्य हुए बिना रहेगा ही नहीं तथा कारण परमात्मा जिसकी दृष्टि में आया है, उसे क्रमश: चारित्र और केवलज्ञान होता ही होता है।
अनंतशक्तियों के महाभण्डार द्रव्य की दृष्टि करते ही राग के साथ एकता की डोर टूट जाती हैं। राग और त्रिकाली स्वभाव एक है - ऐसी मिथ्यात्व की मान्यता हटने से राग से एकता टूट गई है और अब मैं राग से विभक्त हूँ - ऐसा स्वरूप ख्याल में आया है।
ग्रन्थाधिराज समयसार की पाँचवीं गाथा में एकत्व-विभक्त आत्मा की बात आयी है। वहाँ जीव राग से विभक्त और अपने स्वभाव के साथ एकत्वपने रूप स्थापित हुआ है। वीतरागता के पूर्ण होने में एक निज द्रव्य का आश्रय ही कारण है, उसमें पर की कोई अपेक्षा नहीं है। इसमें मनुष्यपने अथवा वज्रनाराच संहनन इत्यादि होने की कोई अपेक्षा नहीं है। शास्त्र का बहुज्ञान हो, धारणा हो, देव-गुरु की श्रद्धा हो, पंचमहाव्रतादि के परिणाम हों तो लाभ होगा ऐसा भी नहीं है।
प्रश्न :- काललब्धि आने पर ही तो कोई बात समझ में आयेगी ? उत्तर :- यह प्रश्न हो सकता है; किन्तु काललब्धि से तात्पर्य क्या है ? काललब्धि कहते किसे हैं ? इसका ज्ञान होना चाहिए।
मूढ़-मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवों को इस बात का पता ही नहीं है। वास्तव में जिसने स्व- पुरुषार्थ से द्रव्य का आश्रय लिया और पर्याय में भी जिसे ज्ञान - आनन्द आदि दशा की प्राप्ति हो गई है, उसे उसीसमय स्व-काललब्धि का ज्ञान हो गया।
आप स्वयं सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा है। इसप्रकार निज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि करे तो पर्याय में ही सर्वज्ञपने की प्रतीति होती है।
इसलिए सर्वज्ञ परमात्मा को एक ओर रखकर मैं स्वयं सर्वज्ञ स्वभावी भगवान आत्मा हूँ। मैं स्वयं सर्वज्ञस्वरूपी वस्तु हूँ । न मैं अल्पज्ञानी हूँ