Book Title: Gyandhara Karmadhara
Author(s): Jitendra V Rathi
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा कलश में 'काचित् क्षति न' - कुछ भी हानि नहीं है, ऐसा कहा अर्थात् यहाँ कई अपेक्षाओं से हानि नहीं है। एक निर्मल पर्याय है और एक रागरूप पर्याय है। इनमें राग की पर्याय निर्मल पर्याय को कोई नुकसान नहीं करती; किन्तु विशेष निर्मलता प्रकट करने में अवश्य हानि करती है। वर्तमान निर्मल प्रकट पर्याय और मलिन पर्याय - ये दोनों एक साथ ही हैं तथापि जिसप्रकार मिथ्यादृष्टिपना और सम्यग्दृष्टिपना में विरोध है; उसप्रकार का विरोध इन दोनों क्रियाओं में नहीं है। किसी जीव को 'राग मेरा है' - ऐसा मिथ्यादृष्टिपना और 'राग मेरा नहीं है' - ऐसा सम्यग्दृष्टिपना ये दोनों एक ही समय में एक साथ नहीं रह सकता; किन्तु रागरूप पर्याय और निर्मल पर्याय दोनों के एक साथ होने में कोई बाधा नहीं है, यही न्याय है। प्रश्न :- विगत दोनों बातों में क्या अन्तर है ? उत्तर :- जिस समय दृष्टि में मिथ्यात्व है, उससमय सम्यग्दर्शन हो - ऐसा तीन काल में संभव नहीं, तथापि जिससमय निर्मल परिणति है, उससमय मलिन परिणति हो, इसमें कोई विरोध नहीं है। ____ आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय में यही बात निम्न प्रकार से कहते है - "जितने अंश में राग है, उतने अंश में बंध है और जितने अंश में सम्यग्दर्शन है, उतने अंश में अबैधरूप परिणाम है।" अहाहा ! जितने अंश में सम्यग्दर्शन-ज्ञान है, उतना अंश अबंध का कारण है तथा जितने अंश में राग है, उतना बंध है। यहाँ कोई एकान्त से कहे कि सम्यग्दृष्टि को बंध है ही नहीं और व्रत-तपादिशुभभाव मोक्ष के कारण हैं, तो ये दोनों कथन विपरीत हैं। प्रश्न : - एक ही समय में सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और राग - ये दोनों किस रीति से विद्यमान हैं ? बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन समाधान :- उक्त बात में विरोध जैसा कुछ भी नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान का आनन्दरूप स्वाद है और राग का दुःखरूप स्वाद है। जबतक परिपूर्णता प्रकट नहीं होती, तबतक धर्मी जीव को जितना आनन्द आया, वह पवित्र है, सुख है और जितना राग आया, वह दुःख है। इसमें दोनों के एक समय रहने में कोई बाधा नहीं है। जिसप्रकार मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि , सम्यग्ज्ञान व मिथ्याज्ञान के एक साथ रहने में विरोध है, उसप्रकार सम्यग्ज्ञान और राग के एक साथ रहने में विरोध नहीं है क्योंकि सम्यग्ज्ञान ज्ञान गुण की पर्याय है और रागरूप क्रिया चारित्र गुण का विपरीत परिणमन है, अत: उन दोनों के एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है। साथ ही विकार परलक्ष्यी है और धर्म स्वलक्ष्यी है। दोनों का लक्ष्य करने पर दोनों ही विरोधी जैसे लगते हैं, किन्तु दोनों में कुछ विरोध नहीं है, वे अपने-अपने स्वरूप में ही विद्यमान हैं। निज चैतन्य आत्मद्रव्य का आश्रय लेकर उसमें जितनी एकाग्रता हुई, उतनी निर्मलता है। इससमय समस्त परलक्ष्यी भाव अथवा देवगुरु-शास्त्र के अवलंबन से हुआ परावलंबी भाव विकार होने से बंध का ही कारण है; किन्तु उनके एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं है। निज वस्तु अर्थात् निज भगवान आत्मा, पूर्णानन्द का नाथ उसके आश्रय से जो निर्मल परिणति प्रकट हुई है, वह स्व-स्वरूप में है और पर के आश्रय से जो पूजा, दान, भक्ति, व्रत, तप इत्यादि विकल्प आते हैं, वे अपने स्वरूप में हैं; किन्तु दोनों अपने-अपने स्वरूप को छोड़कर एक-दूसरेरूप हो जायेंगे - ऐसा नहीं है। शुभभाव उत्पन्न होने से शुद्धभाव का नाश हो जायेगा - ऐसा नहीं, अपितु शुभभाव उत्पन्न होने पर भी शुद्धभाव बना रहता है, वह नाश को प्राप्त नहीं होता - यह विशेष है। 18

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