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ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग ___यह नियम हमारे लिए परमहितकारी है। इस नियमके होनेसे ही अन्तजगत्के, और अपने ज्ञानकी सीमाके अन्तर्गत बहिर्जगत्के, विषय द्वारा, प्रतिघातको प्राप्त होने पर भी हम विचलित नहीं होते, और वान्छित विषयमें मन लगा सकते हैं। इस नियमके होनेसे ही हम वर्तमान क्षणिक सुखदुःखको तुच्छ करके स्थायी दुःखको मिटानेकी और स्थायी सुख पानेकी चेष्टा कर सकते हैं। इसी नियमके प्रभावसे ज्ञानी लोग श्रमसे होनेवाले क्लेश. का अनुभव न करके दुरूह शास्त्रकी आलोचनामें समय बिता सकते हैं । इसी नियमके प्रभावसे कर्म करनेवाले लोग सुखके प्रलोभन पर दृष्टि भी न डालकर कठोर कर्तव्य पालनेमें समर्थ होते हैं। इसी नियमके प्रभावसे योग अर्थात् चित्तकी वृत्तियोंको रोकना साध्य है, और योगी लोग विषयवासना त्याग कर तत्त्वज्ञानलाभके लिए दृढव्रत हो सकते हैं । किन्तु एक विषयमें मनोनिवेशका नियम जैसे शुभकर है, वैसे ही इस नियममें अभ्यस्त होना परिश्रमसाध्य है। अतएव जितनी जल्दी एकाग्रताके साथ मनोनिवेशका अभ्यास आरंभ किया जाय उतना ही अच्छा है।
इस जगह पर यह भी कहना आवश्यक है कि यद्यपि एक विषयमें निविष्टचित्त रहनेसे अन्य किसी विषयकी संज्ञा नहीं होती, तो भी आत्मा विषयान्तरके जिन प्रतिघातोंको पाता है वे एकदम निष्फल नहीं जाते, और इसका प्रमाण पाया जाता है कि शरीरके या मनके अवस्था विशेषमें वह पहलेपहल अपरिज्ञात विषय संज्ञाकी सीमाके बाहर परिज्ञात हुआ था। जैसे, अन्यमनस्क रहने के कारण यद्यपि किसी समय किसी विषयके दिखाई देने या सुन पड़ने पर भी उसे देखने या सुननेकी संज्ञा मुझे नहीं हुई, तथापि शरीरकी उत्कट पीडाकी अवस्थामें, या मनकी उत्कट चिन्ताकी अवस्थामें यह जान पड़ता है कि मैंने वह विषय देखा या सुना था । ऐसा विश्वस्त वृत्तान्त अनेक लोगोंने सुना है। इसके द्वारा यह प्रमाणित होता है कि ज्ञाताकी संज्ञाकी सीमाके बाहर भी ज्ञानकी परिधि फैली है।
अन्तर्जगत्के विषयों में पहले ही आत्मज्ञान और उसके साथ आत्मा अनात्माके भेदका ज्ञान उत्पन्न होता है। यद्यपि ठीक नहीं कहा जा सकता कि बच्चेके मनमें क्या होता है, तो भी जहाँतक हम समझ सकते हैं उससे