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ज्ञान और कर्म ।
[द्वितीय भाग
स्थामें ब्याह होना जो प्रचलित है, वह सामाजिक मामला है, धर्मके अन्तर्गत विषय नहीं है, और जैसे उसके प्रतिकूल अनेक बातें हैं, वैसे ही अनुकूल पक्षमें भी दो एक बातें हैं। उन सब बातोंकी कुछ आलोचना इसी भागके तीसरे अध्यायमें की जा चुकी है। यहाँ पर उसकी पुनरुक्ति करनेकी आवश्यकता नहीं है।
४ विधवाविवाहको प्रचलित करना। विधवाका विवाह हिन्दूधर्मके द्वारा अनुमोदित नहीं है। ब्रह्मचर्य और चिरवैधव्यपालन ही हिन्दूधर्मके अनुसार विधवाका कर्तव्य है। विधवाविवाह हिन्दूधर्ममें एकदम निषिद्ध है कि नहीं, इस बातकी मीमांसा बहुत सहज
नहीं है, और इस समय उसका विचार निष्प्रयोजन भी है। कारण, इस • समय विधवाका विवाह कानूनसे जायज है (१), और जो लोग विधवाविवाहमें शामिल हैं, वे यद्यपि सर्ववादिसंमत रूपसे समाजमें संमिलित नहीं हैं, किन्तु हिन्दूसमाज उनको अहिन्दू या भिन्नधर्मावलम्बी नहीं कहता। हिन्दूसमाज यह बात कहता है कि जो विधवा चिरवैधव्यका पालन करनेमें असमर्थ है, वह ब्याह कर ले, उसका ब्याह कानूनसे जायज है, और उसमें किसीकी कोई आपत्ति नहीं चल सकती । लेकिन उसका वह कार्य उच्च
आदर्शका नहीं है । जो विधवा चिरवैधव्यव्रतका पालन कर सकती है, उसका • कार्य उच्च आदर्शका है। हिन्दूसमाज पहली श्रेणीकी विधवाको मानवी, और ' दूसरी श्रेणीकी विधवाको देवीके नामसे पुकारना चाहता है। यह बात असं. गत नहीं कही जा सकती। जो विधवा इस जन्मके सुखकी वासना छोड़ कर परलोकके मंगलकी कामनासे मृत पतिकी स्मृतिकी पूजा करती हुई अपने जीवनको परिवारका, परोसियोंका और जनसाधारणका हित करनेमें लगा
सकती है, उसका जीवन उच्च आदर्शका है, और उसकी तुलनामें वह 'विधवा, जो इस लोकके सुखकी कामनासे दूसरे पतिको ग्रहण करती है, उसका जीवन उतने उच्च आदर्शका नहीं है, यह बात किस कारणसे अस्वीकार की जा सकती है, सो बहुत कुछ सोचनेसे भी समझमें नहीं आता।
किसी विधवाके अभिभावक उसका ब्याह कर देनेको अगर अच्छा समझें तो वे अनायास ही उसका ब्याह कर सकते हैं, और कानूनके माफिक वह
(१) इस सम्बन्धमें सन् १८५६ ई० का १५ वाँ कानून देखना चाहिए।