Book Title: Gyan aur Karm
Author(s): Rupnarayan Pandey
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 351
________________ वाँ अध्याय ] राजनीतिसिद्ध कर्म । ३२७ चाहती हैं, वह अगर अन्य राजाके राज्याधिकारमें जाना चाहे, तो उसकी इच्छा पहले कुछ अन्याय नहीं जान पड़ती । किन्तु कुछ विचार करके देखनेस इस जगह भी प्रजाकी इच्छा के अनुसार राजा मजा के सम्वन्धको विच्छिन करनेका अधिकार सभी अवस्थाओं में न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता (१) । अनेक समयों में प्रजाके ऐसे कार्य में आपत्तिका कारण नहीं भी रह सकता है किन्तु वह प्रजा जिस राज्यमें जाकर रहनेकी इच्छा करती है उस राज्यके राजाके साथ अगर उसके पहलेके राजाका वैर हो, तो उस प्रजाका वह कार्य उसके पूर्व- राजाके और उसके देशके लिए भावी अनिष्टका कारण हो सकता है। } राजा - और प्रजामें होनेवाले सम्बन्धकी उत्पत्तिकी आलोचना के बाद ही उसकी स्थितिकी आलोचना न करके, उसकी निवृत्तिकी बात कहनेका तात्पर्य यह है कि अनेक जगह इस सम्बन्धकी एक और उत्पत्ति और दूसरी ओर निवृत्ति एक साथ ही होती है । अतएव उत्पत्तिकी बात कहने में निवृत्तिकी बात आपहीसे आ जाती है। जब किसी देशका राजतन्त्र, शान्त भावसे हो या विप्लव और पराजयके द्वारा हो, परिवर्तित होता है, तब नवीन राजा या राजशक्तिके साथ प्रजाका राजा प्रजा-सम्बन्ध उत्पन्न होनेके साथ ही पहलेके राजाके साथ रहनेवाले उसीप्रकारके सम्बन्धकी निवृत्ति हो जाती है। इसी लिए राजा प्रजा सम्बन्धकी स्थितिकी बात कहनेके पहले ही उसकी निवृत्तिकी बात कही गई है। राजा प्रजा सम्बन्धकी स्थिति । अब राजा प्रजा-सम्बन्धकी स्थितिका कुछ वर्णन किया जायगा । यद्यपि राजा-प्रजा-सम्बन्धकी उत्पत्ति अनेक जगह (जैसे विप्लव और पराजय में ) शारीरिक बलके प्रयोगका फल है, किन्तु उसकी बहुत समय तक स्थिति कभी शारीरिक बलके ऊपर नहीं टिक सकती। कोई राजा या राजशक्ति प्रजाको उसके इच्छाके विरुद्ध केवल शारीरिक बलके द्वारा अधिक समय तक बाध्य नहीं रख सकती। ऐसी जगह जिस प्रकारका बल प्रयोग आव १ ) इस सम्बन्ध में Sidgwick's Elements of Politics, XVIII, P. 29 देखो । web.

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