Book Title: Gyan aur Karm
Author(s): Rupnarayan Pandey
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 375
________________ छठा अध्याय ] धर्मनीतिसिद्ध कर्म । ३५१ ___ जान पड़ता है, ईश्वर और परकाल दोनों ज्ञानके विषय नहीं, विश्वासके विषय हैं। ईश्वरमें विश्वास और परकालमें विश्वास युक्ति-सिद्ध है कि नहीं, इस प्रश्नके उत्तरमें कहा जा सकता है कि समग्र विश्वकी चैतन्यशक्तिको ईश्वर कह कर मानना किसी युक्तिके विरुद्ध नहीं है, और देहके अंतमें भी मैं रहूँगा-यह उक्ति आत्म-ज्ञानका फल है, और इसपर अविश्वास करनेका कोई कारण नहीं है। धर्मनीतिसिद्ध कर्मके विभाग। धर्मनीतिसिद्ध कर्मकी आलोचना करनेके लिए, वह दो भागोंमें बाँटा जा सकता है १। ईश्वरके प्रति मनुष्यका धर्मनीतिसिद्ध कर्तव्य कर्म । ईश्वरके प्रति मनुष्यके कर्तव्य और मनुष्यके प्रति मनुष्यके कर्तव्य, इन दोनों कर्तव्योंमें दो विशेष प्रभेद हैं। एक तो यह कि मनुष्यके प्रति मनुष्यका कर्तव्य पतित होनेसे केवल कर्तव्य पालन करनेवालहीका मंगल नहीं होता, जिसके अनुकूल वह कर्तव्य पाला जाता है उसका हित भी होता है, किन्तु ईश्वरके प्रति कर्तव्य पालित होनेसे उन ( ईश्वरका ) हित हुआ, यह बात हित शब्दके प्रचलित अर्थमें नहीं कही जा सकती। कारण ईश्वरके कोई अभाव या अपूर्णता नहीं है, अतएव उनका हित कौन कर सकता है ? हाँ, यह बात कही जा सकती है कि उनके प्रति कर्तव्यपालनसे कर्तर्व्यपालन करनेवालेका मंगल होनेके कारण ईश्वरकी सृष्टिका हित होता है, और उससे वह प्रसन्न होते हैं। दूसरा भेद यह है कि मनुष्यके प्रति मनुष्यके कर्तव्य जुदे जुदे हैं। एक व्यक्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला कर्तव्य दूसरे व्यक्तिसे सम्बन्ध रखनेवाले कर्तव्यसे जुदा है। किन्तु ईश्वरके प्रति मनुष्यका कर्तव्य जो है, वह मनुष्यकी सभी कर्तव्योंकी समष्टि है। मनुष्यका ऐसा कोई कर्तव्य कर्म नहीं है, जो ईश्वरके प्रति उसका कर्तव्य न गिना जा सकता हो। कारण, हमारे सभी कर्तव्य ईश्वर नियमोंपर स्थापित हैं, और ईश्वरके उन नियमोंका पालन करनेके लिए ही सब कर्तव्योंका पालन किया जाता है। मनुष्यको अपने सभी कर्तव्यकर्म प्रसन्नताके उद्देश्यसे करने चाहिए । यही इस गीताके वाक्यका अर्थ है

Loading...

Page Navigation
1 ... 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403