Book Title: Gyan aur Karm
Author(s): Rupnarayan Pandey
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 364
________________ ३४० ज्ञान और कर्म । [द्वितीय भाग कामोंकी आलोचना वैसेही संमानके साथ होनी चाहिए। ऐसा न होनेसे वह आलोचना दोष या भ्रमके संशोधनमें कृतकार्य तो होती ही नहीं, बल्कि उलटे परस्परके प्रति विद्वेषका भाव उत्पन्न कर देती है। ब्रिटन और भारतके बीच राजा-प्रजा सम्बन्धकी स्थापना ईश्वरकी इच्छा से, दोनोंकी भलाईके लिए, हुई है। हमारी भलाई यह है कि हमने एक प्रबल पराक्रमी, किन्तु न्याय-परायण, जातिके सुशासनमें शान्ति, अनेक प्रकारके सुख और स्वच्छन्दता पाई है। अंगरजोंके साथ संमिलनसे हमारे मनमें बहुत दिनोंके उपेक्षित जड़-जगत्के उपर यथोचित आस्था उत्पन्न होगई है और हम अब जड़-विज्ञानका अनुशीलन करते हुए उसके द्वारा वैषयिक उन्नतिके लिए चेष्टा करने लगे हैं। उधर अँगरेजोंकी और साधारणतः सभी पाश्चात्य जातियोंकी भलाई यह है कि हिन्द्रजातिके संसर्गमें आकर उनके हृदयमें आध्यात्मिक तत्त्वके अनुशीलन और संयमके अभ्यास पर श्रद्धा उत्पन्न हो रही है, और उसके द्वारा उनकी अपूरणीय विषय-वासना तथा उससे उत्पन्न विरोध व अशान्ति मिटनेकी संभावना है। यह आशा तो नहीं की जा सकती कि पाश्चात्य जातियों के संसर्गमें आकर हिन्दू लोग जितनी जल्दी विज्ञानके अनुशीलनके विषयमें इतने अनुरागी हो गये हैं, हिन्दुओंके संसर्गमें आकर पाश्चात्य लोग उतनी जल्दी हिन्दुओंके आध्यात्मिक तत्त्वके अनुशीलनमें वैसे अनुरागी हो सकेंगे, किन्तु ऐसे नैराष्यका भी कोई कारण नहीं है कि इस संसर्गका कोई फलही न होगा। हिन्दू अगर ठीक रह सकेंगे, और पाश्चात्य लोगोके दृष्टांन्तमें मुग्ध न होकर आध्यात्मिक भावको अक्षुण्ण बनाये रखकर अनासक्तभावसे वैषयिक उन्नतिकी चेष्टा करें, तो ऐसा दिन अवश्यही आवैगा जब हिन्दुओंके शान्त और संयत भावका दृष्टात पाश्चात्य जगत्की अनन्य ज्वलन्त विषय-वासनाको शान्त कर देगा। ३-प्रजाके प्रति राजाका कर्तव्य । राजा और प्रजा दोनोंके परस्पर एक दूसरेके प्रति कर्तव्य कर्म हैं । जब राजाके लिए प्रजा नहीं है, बल्कि प्रजाके लिए ही राजा है, तो इसीकी आलोचना पहले होनी चाहिए कि प्रजाके प्रति राजाका कर्तव्य क्या है।

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