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ज्ञान और कर्म ।
[प्रथम भाग
शिक्षाविभ्राट अनेक प्रकारका है। जैसे शिक्षार्थीकी सीखनेकी शक्ति और आधिकारसे अधिक शिक्षा, शिक्षककी सिखानेकी शक्ति से अधिक शिक्षा, शिक्षाथींके लिए जो विषय अनावश्यक हैं उनकी शिक्षा, अकारण कठोर प्रणालीके द्वारा शिक्षा, इत्यादि । इस विषयमें पहले अनेक बातें कही जा चुकी हैं; इस समय यहाँपर फिर अधिक कहनेका प्रयोजन नहीं।
परीक्षा-विभ्राट् प्रधानरूपसे यह है कि परीक्षार्थीने पढ़े हुए विषयको कहाँतक जान पाया है-इसकी परीक्षा न लेकर इस बातका परिचय लेनेकी चेष्टा कि वह कहींतक नहीं जान सका, और परीक्षक तथा परीक्षा देनेवालेके बीचमें एक प्रकार परस्पर-विरुद्ध सम्बन्धकी सृष्टि करना । परीक्षार्थी जैसे पग पग पर परीक्षकको धोखा देनेके लिए तैयार है, इस तरह समझकर, सरल प्रश्न छोड़कर कूटप्रश्न करनेसे, परीक्षार्थी भी सरलभावसे ज्ञान प्राप्त करने में प्रवृत्त न होकर, जिसमें वह कूटप्रश्नका उत्तर देनेको समर्थ हो उसी राहमें फिर पड़ता है।
इन दोनों विभ्राटों ( गोलमाल) का फल यह होता है कि ज्ञानलाभ आनन्ददायक नहीं होता, बल्कि कष्टकर हो उठता है।
उद्देश्य-विपर्यय जो है वह ज्ञानलाभजनित आनन्दके अनुभवकी एक प्रधान बाधा है। शिक्षार्थी मनुष्य अगर निष्पाप चित्तसे-निर्दोष भावसे ज्ञानके उपार्जनमें प्रवृत्त हो, तभी उसे ज्ञान-लाभमें आनन्द होगा। ऐला न होकर अगर वह किसी कु-अभिसन्धिको सिद्ध करनेके लिए किसी विषयका ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करता है, तो उसे शंकित भावसे ज्ञानोपार्जन करना होता है, और उस ज्ञानलाभके साथ ज्ञानका कुछ भी संसर्ग नहीं रह सकता। ऐसी जगह पर केवल यही बात नहीं होती कि ज्ञानका उपार्जन ज्ञान-प्रार्थीके लिए आनन्ददायक न हो, बल्कि वह सर्व साधारणके गुरुतर अनिष्टका कारण भी हो सकता है। उस भावी अनिष्टको रोकनेके लिए पूर्वकालमें शिक्षक लोग वह विद्या सत्पात्र विद्यार्थीके सिवा और किसीको नहीं देते थे, जिसका प्रयोग अन्यका अनिष्ट करने में हो सकता है। वर्तमान समयमें यह बात संभव नहीं है। इस समय शिक्षाका प्रचार बढ़ गया है। इस समय केवल गुरुमुखसे पढकर ही विद्या नहीं प्राप्त की जा सकती, पुस्तक पढ़कर भी सीखी जा सकती है। इस समय अनिष्टसाधनमें जिनका प्रयोग किया जा सकता है