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ज्ञान और कर्म ।
द्वितीय भाग
दरिद्रान् भर कान्तेय मा प्रयच्छेश्वरं धनम् ।। __ अर्थात् हे कुन्तीनन्दन, दरिद्रों (गरीबों) का भरण-पोषण करो। समर्थ या धनी आदमीको मत धन दो। __ यह महापुरुषका वचन सदा याद रखना चाहिए। परन्तु जो आदमी किसी तरहके अभावसे पड़कर कष्ट पा रहा है, और सहायता चाहता है, वह अपने दोषसे कष्ट पारहा है, यह सोचकर उसे दानके अयोग्य समझना, उसकी प्रार्थनाको एकदम प्रत्याख्यान करना, अर्थात् सूखा जवाब दे देना, कठिन हृदयका कठोर कार्य जान पड़ता है। प्रार्थीके दोष-गुणके अनुसार दानका परिमाण ठीक करना चाहिए। किन्तु प्राणधारणके लिए उपयोगी सहायता पानेके लिए, जान पड़ता है, कोई भी अभाव पीड़ित आदमी अयोग्य नहीं है।
इसके सिवा कोई कोई कहते हैं कि व्यक्तिविशेषका दान जनसाधारणका उतना उपकार नहीं करसकता। उनके मतमें सभीका कर्तव्य यह है कि जो दान किया जाय वह योग्य सभा-समितिके हाथमें दिया जाय, ऐसा होनेसे एक तो दान योग्य पात्रको मिलनेकी संभावना आधिक है, दूसरे दस-पाँच आदमीका दान एकत्र होकर जनसाधारणके विशेष हितकर काममें लगसकता है। यह बात अवश्य सत्य है, लेकिन दानके रुपए सभा समितिके हाथमें जानसे, जैसे एक तरफ उससे सर्वसाधारणका अधिक हित होनेकी संभावना है, वैसेही दूसरी तरफ उससे सर्वसाधारणकी क्षति भी है। कारण, सभी अगर अपने दानके रुपए सभा समितियोंके हाथमें सौंप दें, तो साक्षात्-सम्बन्धमें हरएक व्यक्तिके दानका परिमाण कम हो जायगा, और प्रभावपीडितके कातर वचनोंपर ध्यान न देनेका और प्रार्थीको विमुख करनेका अभ्यास हो जायगा। इसी तरह उक्त ग्रन्थोंके द्वारा लोगोंकी करुणा-उपचिकीर्षा (उपकार करनेकी इच्छा) आदि अच्छी और श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ धीरे धीरे घट जायेगी। अतएव यद्यपि सभा समितियोंके हाथमें लोगोंका दानकी रकमका कुछ अंश सौंप देना अच्छा है, तथापि हरएक व्यक्तिको चाहिए कि अपने हाथसे दानके योग्य सुपात्रको कुछ कुछ देता रहे । यह न करनेसे अनेक सत्प्रवृतियाँ काम न करनेके कारण निस्तेज या निकम्मी हो जायेंगी। लेकिन एक बात याद रखना आवश्यक है। प्रार्थीकी कातरोक्तिसे दयार्द्र होकर दान करना जैसे दाताके लिए प्रशस्त और कर्तव्य है, वेसेही प्रार्थीक धन्यवाद और निकटवर्ती लोगोंके प्रशंसावादकी लालसा या लोभसे दान करना अप्रशस्त और अकर्तव्य है।