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दूसरा अध्याय ]
कर्तव्यताका लक्षण ।
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कर्तव्यताका उल्लंघन अवश्य होता है । अतएव एक कर्तव्यके अनुरोधसे दूसरा कर्तव्य अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा। ऐसी जगह पर कर्तव्यताके गुरुत्वका तारतम्य विचारकर, जो गुरुतर कर्तव्य हो उसीका पालन करना चाहिए। और, इस विवेचनाके अनुसार उक्त दृष्टान्तमें मिथ्या उत्तर देना न्यायसंगत माना जा सकता है। किन्तु यह याद रखना आवश्यक है कि वह अगतिकी गति है, आपद्धर्म है। हममें पूर्ण बल होता तो हमें वह न करना पड़ता, हम आक्रमणकारीको निरस्त्र या निरस्त कर सकते । अथवा हमारा ज्ञान पूर्ण होता, तो हम वैसे संकटके स्थानमें जाते ही नहीं। हमारी अपूर्णताके कारण ऐसे कर्तव्यताके विरोधमें पड़ना पड़ा, हम दोनों कर्तव्योंका पालन नहीं कर सके, एककी उपेक्षा करनी पड़ी, और इसके लिए चित्तको सन्ताप रहेगा।
___ कर्तव्यताके गुरुत्वका तारतम्य-निरूपण । ऊपर चारों प्रश्नोंकी आलोचनामें देखा गया कि कर्तव्यताके विरोध-स्थल में गुरुतर कर्तव्यके अनुरोधसे अपेक्षाकृत लघुतर कर्तव्यकी उपेक्षा करनेके सिवा दूसरा उपाय नहीं है, दूसरी गति नहीं है। उसमें यह जिज्ञास्य हो सकता है कि कर्तव्यताके गुरुत्वका तारतम्य-निरूपण किस प्रकार होगा?
कोई कोई कह सकते हैं कि जैसे आयतन आदि मौलिक गुण प्रत्यक्षके द्वारा ज्ञेय हैं, और उनके तारतम्यका भी प्रत्यक्षके द्वारा निरूपण हो सकता है, वैसे ही कर्तव्यता, कर्मका मौलिक गुण भी विवेकके द्वारा जेय है । और, दो परस्पर-विरुद्ध कर्तव्यताओंके तारतम्यका भी निरूपण विवेकके द्वारा हो सकता है। यह बात सत्य है, किन्तु आयतनके तारतम्यका निरूपण करनेके लिए प्रत्यक्ष जैसे परिमाण (माप ) की सहायता लेता है, कर्तव्यताके तारतम्यका निर्णय करनेके लिए वैसे.ही विवेक किस लक्षणकी सहायता लेगा?
इस बातका संक्षिप्त उत्तर यह है कि दो विरुद्ध कर्तव्योंमें जो प्रवृत्ति-मार्गमुख या स्वार्थ-प्रेरित है उसकी अपेक्षा जो निवृत्ति-मार्गमुख या परार्थ-प्रणोदित है वही अधिकतर प्रबल गिना जायगा । और, दोनों ही अगर एक श्रेणीके हों, अर्थात् दोनों ही निवृत्ति मार्गमुख और परार्थप्रणोदित हों, अथवा दोनोंही प्रवृत्ति-मार्ग-मुख और स्वार्थ-प्रेरित हों, तो जो अधिक हितकर जान पड़े वही पालनीय है।