Book Title: Gyan aur Karm
Author(s): Rupnarayan Pandey
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 320
________________ २९६ शान और कर्म। [द्वितीय भाग पहला उद्देश्य प्रधान रूपसे इस लोकके साथ, और दूसरा उद्देश्य प्रधान रूपसे परलोकके साथ सम्बन्ध रखता है। द्वितीय उद्देश्यकी बातें प्रयोजनके अनुसार 'धर्मनीतिसिद्ध कर्म' शीर्षक अध्यायमें कुछ कही जायँगी। प्रथम उद्देश्यके सम्बन्धमें वक्तव्य यह है कि धर्मविषयकी आलोचना ज्ञानलाभहीके लिए विधिसिद्ध है। अपनी बुद्धिमत्ताका परिचय देनेके लिए या दूसरको जीतनेकी इच्छा चरितार्थ करनेके लिए धर्मविषयकी आलोचना अकर्तव्य है। कारण, उस तरहकी इच्छा रहने पर शान्त भावसे और सत्यकी खोजके लिए आलोचना नहीं होगी-उसमें दंभका भाव और कुतर्क आ पड़ेगा। __ ५ ज्ञानानुशीलनसमाज और उसकी नीति । सभ्य जगत्में ज्ञानानुशीलन समाज बहुतसे और अनेक प्रकारके हैं। उनकी नियम-प्रणाली भी अनेक प्रकारकी है। अधिकांश ज्ञानानुशीलन समाज इच्छाप्रतिष्ठित हैं। कुछ राजाके द्वारा स्थापित भी हैं । विश्वविद्यालय प्रायः सभी जगह राजाके द्वारा स्थापित हैं। अन्यान्य विद्यालय प्रायः सभी जगह राजाके द्वारा स्थापित हैं। अन्यान्य विद्यालय, पुस्तकालय, और ज्ञानानुशीलनसे सम्बन्ध रखनेवाली सभासमितियाँ प्रायः इच्छाप्रतिष्ठित हैं। राजप्रतिष्ठित समाजके नियमोंको राजा या राजाकी आज्ञाके अनुसार समाज निश्चित करता है। इच्छाप्रतिष्ठित समाज अपने अपने अभिप्रायके अनुसार अपने नियम निश्चित करते हैं। किन्तु ज्ञान की सीमा बढ़ाना और शिक्षाकी सुप्रणाली स्थापित करना, इन दोनों विषयोंके अलावा और विषयों में परस्पर प्रतियोगिता ( लाग-डॉट) रहना अनुचित है। सभी ज्ञानानुशीलन समाजोंको इस साधारण नीतिका पालन करना चाहिए। अनेक जगह विद्यालय आदिकी परस्पर प्रतियोगिता अहितका कारण हो उठती है। जहाँ विद्यार्थियोंकी संख्या अधिक नहीं है, वहाँ एक विषयके एकसे अधिक विद्यालय रहनेसे किसीको भी सुभीता नहीं होता। एक तो सुशासनमें बाधा पड़ती है। एक विद्यालयके नियम अधिकतर दृढ़ होनेसे विद्यार्थी लोग दूसरे विद्यालयमें चले जाते हैं, जहाँ पहलेकी अपेक्षा कम दृढ़ नियम होते हैं। दूसरे एक ही कार्यके लिए दो विद्यालय रहनसे अकारण एक गुनेकी जगह दुगना धन और सामर्थ्य लगाना पड़ता है। प्रतियोगितामें एक सुफल भी है। वह यह कि हरएक प्रतिद्वन्द्वी यथाशक्ति

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