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ज्ञान और कर्म।
द्वितीय भाग-कर्म।
उपक्रमणिका। इस पुस्तकके प्रथम भागमें ज्ञानके सम्बन्धमें कुछ बातें. कही गई हैं। अब इसके द्वितीय भागमें कर्मके सम्बन्धमें कुछ आलोचना की जायगी।
पहले कहा जा चुका है कि ज्ञान और कर्ममें परस्पर सम्बन्ध है ये दोनों परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं । एककी बात (जैसे ज्ञानविभागमें ज्ञाताकी बात ) कहनेमें दूसरेकी बात (जैसे कर्मविभागमें कर्ताकी बात ) अनेक स्थलोंमें प्रकारान्तरसे आप आ जाती है, और उसीके साथ • उसे भी न कहनेसे यह बात असंपूर्ण और अस्पष्ट रह जाती है। इसी कारण प्रथम भागमें, ज्ञानकी आलोचनामें, द्वितीय भागमें कहनेकी बातें जगह जगह पर कह दी गई हैं। किन्तु वे बातें फिर द्वितीय भागमें यथास्थान न कहनेसे भी काम नहीं चलेगा । कारण, उन्हें न कहनेसे इस स्थानकी बातें भी अस्पष्ट ही रह जायँगी । इस कारण इस दूसरे भागमें जो कुछ पुनरुक्ति होगी, उस दोषको, आशा है, पाठक क्षमा करेंगे। ___ कर्म शब्द, ज्ञान-युक्त जीव अर्थात् मनुष्यके कार्य, इस अर्थमें ग्रहण किया जायगा। कर्ता बिना कर्म नहीं होता। अतएव कर्मकी आलोचनामें सबसे