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तीसरा अध्याय]
अन्तर्जगत।
___ और एक बात है। संसारमें भले और बुरे दोनों तरहके आदमी हैं ! जितनी ही भले आदमियोंकी संख्या बढ़ती है उतना ही समष्टिरूपसे संसार भला हो उठता है । केवल यही नहीं, भले आदमी जितनी अधिक मात्रामें सद्गुणसंपन्न और असद्गुणहीन होते हैं उतना ही सारा संसार अधिकता भला हो जाता है। ठंडा और गर्म पानी मिलानेसे जेसै ठंडा पानी गर्म पानीको कुछ ठंडा करता है और गर्म पानीको ठंडे पानीको कुछ गर्म करता है, और वह मिश्रित जल गुनगुना रह जाता है, वैसे ही बुरे आदमीके संसर्गसे भले आदमीको भी कुछ बुरा बनना पड़ता है, और भले आदमीके संसर्गसे बुरे आदमीको भी कुछ भला बनना पड़ता है। और, जलकी गर्मी जैसे क्रमशः स्वभावसे ही कम हो आती है वैसे ही बुराई भी क्रमशः घट जायगी। तब संपूर्ण मनुष्यसमाजकी गति क्रमशः उन्नतिमा-- र्गमुखी होगी।
इच्छाके द्वारा प्रेरित होकर मनुष्य काम करनेका प्रयत्न या चेष्टा करता है। प्रयत्न या चेष्टा अन्तर्जगत्की अन्तिम क्रिया है, और बहिर्जगत्की अर्थात् देहकी और अन्यान्य वस्तुओंकी सहायतासे वह संपन्न होती है । प्रयत्नका ज्ञानकी अपेक्षा कर्मके साथ अधिकतर निकट-सम्बन्ध है, किन्तु अन्तर्जगत्की क्रिया होनेके कारण ज्ञानविभागमें, इस अन्तर्जगत्सम्बन्धी अध्यायमें भी उसका उल्लेख आवश्यक है।
प्रयत्न या चेष्टामें मनुष्य स्वतन्त्र है या परतन्त्र, इस बातको लेकर दार्शनिकोंमें-खासकर पाश्चात्य दार्शनिकोंमें बहुत कुछ मतभेद है। कर्मविभागमें, 'कर्ताके स्वतन्त्रता है या नहीं' नामके अध्यायमें, इसकी कुछ आलोचना होगी। यहाँपर इतना ही कहेंगे कि यद्यपि पहले जान पड़ता है कि चेष्टामें कर्ता स्वतन्त्र है, किन्तु कुछ सोचकर देखनेसे जान पड़ता है कि कर्ता स्वतन्त्र नहीं है। चेष्टा पूर्ववर्ती इच्छाका अनुकरण करती है, और वह इच्छा पूर्व-शिक्षा और पूर्व-अभ्यासके द्वारा निरूपित होती है। ऐसा है तो अनेक लोग कहेंगे कि धर्म-अधर्म और पाप-पुण्यके लिए मनुष्यकी जिम्मेदारी नहीं रहती। यह आपत्ति अखण्डनीय नहीं है, किन्तु इसका खंडन भी निपट सहज नहीं है । इसके खंडनके लिए संक्षेपमें यह बात कही जा सकती है कि कर्ताकी स्वाधीनता या पराधीनताके ऊपर कर्मका दोष-गुण या कर्मका फल