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चौथा अध्याय। बहिर्जगत्।
><पहले एक बार आभास दिया जा चुका है, और फिर भी एक बार कह देनेमें कुछ दोष नहीं है, कि इस साधारण ग्रन्थके 'बहिर्जगत् ' शीर्षक क्षुद्र अध्यायमें, कोई पाठकं बहिर्जगत्के विषयकी किसी तरहकी पूर्ण या सम्यक् आलो
चना पढ़नेकी प्रत्याशा न करें। बहिर्जगत् असीम है। एक तरफ जैसे उसके 'बड़ेपनकी सीमा नहीं है, दूसरी तरफ वैसे ही उसमें क्षुद्रकी अपेक्षा क्षुद्रतर इननी वस्तुएँ हैं कि उनकी क्षुद्रताकी भी सीमा नहीं है । एक तरफ बड़े बड़े ग्रह-तारका-नीहारिकापुंज हैं, दूसरी तरफ सूक्ष्म अतिसूक्ष्म अणु-परमाणु हैं। एक तरफ मनुष्य, हाथी, तिमि आदि विशालकाय जीव हैं, दूसरी तरफ कीट, पतंग, कीटाणु आदि सूक्ष्मतम जन्तु हैं । एक तरफ विशाल वनस्पति हैं, दूसरी तरफ तुच्छ तृण हैं । और, सर्वत्र उन्हीं जड़ और जीवोंकी समष्टि
और व्यष्टिकी निरन्तर विचित्र क्रियाएँ हैं। इन सब वस्तुओं और व्यापारोंसे परिपूर्ण बहिर्जगत्की सम्यक आलोचना तो दूर, आंशिक आलोचना भी सहज बात नहीं है। इस स्थल पर बहिर्जगत्के विषयकी केवल नीचे लिखी मोटी मोटी बातोंकी ही व्याख्या की जायगी
१ बहिर्जगत् और उसके विषयका ज्ञान यथार्थ है कि नहीं? २ बहिर्जगत्के सब विषयोंका श्रेणीविभाग। ५-वहिर्जगत और उसके विषयका ज्ञान यथार्थ है कि नहीं?