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ज्ञान और कर्म ।
[प्रथम भाग
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पूरा मर्म नहीं विदित होता। विस्मृत विषय याद आने पर यह बात कौन हमें बता देता है कि वह विषय नया नहीं, पूर्वपरिचित है ? यह ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है ? जड़वादी लोग इस प्रश्नका कोई युक्तिसिद्ध उत्तर नहीं दे सकते, और चैतन्यवादी लोग केवल इतना ही कह सकते हैं कि पूर्वापरके इस सादृश्य या एकताका परिचय पाना आत्माका स्वभावसिद्ध कार्य है।
प्रत्यक्ष ज्ञान पानेके लिए देहकी, अर्थात् इन्द्रिय आदिकी, सहायता जैसे आवश्यक है, वैसे ही पूर्वप्रत्यक्षप्राप्त ज्ञानको स्मृति पथमें लानेके लिए देहकी, अर्थात् मस्तिष्ककी या किसी अन्य भागकी, सहायता आवश्यक है या नहीं, इस विषयका अनुशीलन अतीव आवश्यक है, लेकिन वह है भी अत्यन्त कठिन । इन्द्रियोंके कायाकी परीक्षा करना जितना सहज है, उसकी अपेक्षा मस्तिष्कके कार्योंकी परीक्षा करना अधिक दुरूह है।
३-स्मृतिके कार्य किन किन नियमोंके अधीन हैं ?-यद्यपि स्मृतिके काम कैसे होते हैं, यह ठीक कहना अत्यन्त कठिन है, किन्तु वे कार्य किन किन नियमोंके अधीन होते हैं, इसका अनुशीलन उसकी अपेक्षा सहज है। किसी विषयको स्मरण रखने और किसी भूले हुए विषयको याद करनेके लिए हम आप क्या करते हैं, और अन्य लोग क्या करते हैं, इस पर ध्यान देकर हम इस बारेमें जिस सिद्धान्त पर पहुंचते हैं, वह संक्षेपमें यह है कि
पहले तो, हम जितना ही अधिक समय तक या अधिक बार मन लगाकर किसी विषयकी आलोचना करते हैं, उतना ही वह विषय अधिक दिनोंतक हमें स्मरण रहता है, और भूल जानेपर उतनी ही जल्दी सहजमें स्मरण हो आता है।
स्मरण करनेका विषय कोई वाक्य हुआ तो उसे अनेक वार रटनेका फल यह होता है कि बादको कुछ अंश पढ़ने पर अवशिष्ट अंशकी आवृत्ति अनायास आपहीसे हो जाती है।
दूसरे, स्मरण रखनेके विषयके साथ साथ उसके सब आनुषंगिक विषयोंके प्रति, और वे मूलविषयके साथ जिस जिस सम्बन्धमें बंधे हैं उनके प्रति, विशेष ध्यान देनेसे, आनुषंगिक विषयोंमेंसे कोई भी एक याद आजानेसे साथ ही साथ मूल विषय भी स्मरण हो आता है।